Wednesday, August 4, 2010

गलत व्याख्याओं का खेल

अरुण कुमार त्रिपाठी जी ने अपने लेख ‘’उदार समाज की कट तर ताएँ’’में जो सच्ची और बेबाक बातें कही हैं उससे असहमत होने का सवाल ही नहीं है.दर असल जिन बातों की पीड़ा उजागर हुई है वे सिद्दांतों और परिभाषाओं की गलत व्यख्यओंके घाल मेल से उपजी है.उदहारण के तौर पर देखें तो अश्व अथार्त पांच साल पुराने उस जौ की आहुति देने को कहा गया है जो दोवारा नहीं उग सकता.अश्व का अर्थ घोडा से लेकर यज्ञ में उसकी आहुति देना शुरू कर दिया गया जो की बिलकुल गलत था.धर्म के अहिंसा तत्व को नकार कर जीव हिंसा को धर्म में शामिल कर दिया गया और उसका परिणाम हुआ की महात्मा बुद्ध ने यज्ञ –हवन को ही मूढ़ता करार देकर उसका विरोध कर दिया.तमाम अच्ची बातें गलत अर्थ निकले जाने के कारन गलत अपने जा रहीं थीं उन्हें बुद्ध मत में पूरी तौर पर ठुकरा दिया गया.जब की बुद्ध के विरोधियों ने गलत बातों में सुधार किये बगैर बौद्ध मत का खंडन और विरोध कर दिया.बौद्ध मठों और विहारों को उजाड़ा व् जलाया गया.अतः बौद्ध मत भारत से बहार तो पनपा ,यहीं उप्पेक्षित हो गया और पहले की तरह दकियानूस वाद चल पड़ा जिसके चलते भारत में विदेशी शासन की स्थापना हुई.धर्म की मूल धारणा को भुला दिया गया और मानव द्वारा मानव के शोषण को धर्म का जमा पहना दिया गया.पाखंड और ढोंग का समय समय पर विरोध होता रहा परन्तु मध्य युगीन भक्ति आन्दोलन ने उस पर करार प्रहार किया.संत कबीर ने दो टूक कहा है-
दुनिया ऐसी बावरी की पत्थर पूजन जाये,
घर की चकिया कोई न पूजे जे ही का पीसा खाय.
कंकर पत्थर जोर कर लायी मस्जिद बनाय ,
ता पर चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय ।

कबीर,गुरु नानक आदि अनेकों संत-महात्माओं ने जनता को सन्मार्ग पर लाने का प्रयास किया,आधुनिक युग में स्वामी दयानंद,विवेकानंद,रजा राम मोहन राय आदि ने सामाजिक कुरीतियों का विरोध किया;किन्तु आज ये कुरीतियाँ दिन दूनी रत चौगुनी बढती जा रही हैं.तमाम लोगों ने खुद को भगवान् या अवतार घोषित कर दिया है और जनता को गुमराह कर रहे हैं.समाजवाद के झंडाबरदार और वाम पंथी भी पूँजी वाद के विरोध का राग आलापते हुए पूँजी वाद को ही मजबूत कर रहे हैं.खुद को वाम पंथी कहलाने वाले एक दल के एक राष्ट्रीय नेता शासकीय अधिकारीयों से धन उगाही कर रहे हैं और गरीब – किसान मजदूरों के नाम पर नेतागिरी चमका कर उन्हीं का शोषण करा रहे हैं.सदी गली सामाजिक मान्यताओं और धर्म की शोषण मूलक रीतियों का प्रचार वे ही वाम पंथी तुच्छ धन प्राप्ति के लिए कर रहे हैं जिन्हें इनके विरोध में खड़ा होना चाहिए था.वाम पंथी झुकाव वाले मोर्चे के नेता भी इसकी अनदेखी कर के क्रांति का नारा लगा रहे हैं.विद्रोह या क्रांति कोई ऐसी चीज़ नहीं होती जिसका विस्फोट एकाएक अचानक हो,बल्कि इसके अंतर में –अंतर के तनाव को बल मिलता रहता है.आज हमारे देश में विकराल अंतर हैऔर इसका तनाव भी है तथा धर्म का गुमराह भी है जो लोग कुरीतियों के विरोध में और सुधार के समर्थक हैं वे एकजुट नहीं बिखरे हुए हैं जैसा की त्रिपाठी जी ने स्पष्ट लिख दिया है.धर्म के मर्म को समझने वाले और कुरीति विरोधी समाज-सुधारकों को सम्मिलित होकर धर्म के नाम पर हो रहे ढोंग व् पाखण्ड पूर्ण आदम्बर का पुर जोर विरोध करना चाहिए.इसमें जनता को सहज आक्रष्ट करने में भक्ति आन्दोलन के संतों की सूक्तियां बेहद सहायक रहेंगी.धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या में स्वामी दयानंद का शोध असरकारक रहेगा.उत्पादन और वितरण के साधनों पर समाज का स्वामित्व चाहने वाले सच्चे समाजवादियों को इसका समर्थन चाहिए.परन्तु दुर्भाग्य है की ये सब परस्पर विरोध में खड़े हैं और इसीलिए भोली जनता ठगी जा रही है.यदि तहे दिल से समाज सुधार करना है तो आर्य समाजियों,समाजवादियों तथा साम्यवादियों को एकजुट हो कर कबीर ,नानक,आदि भक्ति आन्दोलन के पुरोधाओं का आसरा लेना ही होगा.

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