Thursday, October 28, 2010

पूजा क्या ,क्यों और कैसे ? ------ विजय राजबली माथुर

यह धन और धरती बंट क़े रहेगी ,भूखी जनता अब चुप न रहेगी .नारे लगाने वालों क़े मत क़े प्रणेता कार्ल मार्क्स महर्षि चार्वाक से प्रभावित थे . चार्वाक परमात्मा को नहीं मानते थे और उन्होंने कहा था -"जब तक जियो मौज से जियो ;घी पियो चाहे उधार ले क़े पियो ."इसी प्रकार कार्ल मार्क्स ने कहा "man has created the god for his mental security only ."परन्तु विश्व का बहुमत परमात्मा को मानता है चाहे वह खुदा कहता हो अर्थात वह शक्ति जो खुद ही बनी है उसे किसी ने बनाया नहीं है चाहे god कहे जिसका अभिप्राय ही generate ,operate ,destroy से है .हम भारतीय उस शक्ति को परमात्मा कहते हैं जिसने स्वंयअपना नाम ओ३म  बताया है .परमात्मा ने मनुष्य रूपी प्राणी का नाम कृतु रखा है अर्थात कर्म करने वाला .मनुष्य शरीर में आत्मा को कर्म करने की छूट है ,अन्य योनिओं में आत्मा केवल भोग ही भोगता रहता है .मनुष्य कहा ही इसलिए जाता है क्योंकि यह मननशील  प्राणी है जो अपने बुध्दी व विवेक से मनन करता हुआ कर्म करता है .कर्म तीन प्रकार क़े होते हैं ---सद्कर्म ,दुष्कर्म और अकर्म .सद्कर्म का फल अच्छा ,दुष्कर्म का बुरा फल और अकर्म का दण्ड मिलता है .अकर्म का अर्थ है वह ड्यूटी ,दायित्व या फ़र्ज़ जो किया जाना चाहिए था परन्तु किया नहीं गया .हालाँकि यह सद्कर्म या दुष्कर्म तो नहीं है परन्तु इस अकर्म से दूसरे प्राणी का जो अहित हुआ वह परमात्मा की निगाह में दण्ड  का भागीदार बना देता है .जब कर्मों क़े अनुसार फल मिलना ही है तो फिर परमात्मा को याद क्यों किया जाये ?यह प्रश्न स्वभाविक है .हमें यह मनुष्य  शरीर परमात्मा की कृपा से मिला है जिसमे हमें कर्म करने की छूट मिली है ,इसलिए परमात्मा को धन्यवाद देने हेतु हमें उसकी उपासना अथवा उसकी पूजा करनी चाहिए .पूजा वह विधि है जिससे परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त किया जा सकता है .यों तो परमात्मा सर्वत्र है हमारे शरीर में भी है परन्तु उसका ध्यान करना ,उसे याद करना ही पूजा कहलाता है .

वास्तविक पूजा कैसे हो ?                 

पूजा परमात्मा का ध्यान करने की विधि है और परमात्मा को धन्यवाद देने हेतु की जाती है परन्तु इसे कैसे करें -इस विषय में घोर मतभेद ,व्यापक विवाद एवं अनेकों भ्रांतियां हैं .तरह -तरह क़े लोगों ने अपनी सुविधा और इच्छा से तरह -तरह की पूजा विधियाँ गढ़ ली हैं .कोई मानस पाठ करा रहा है ,कोई भागवद पाठ ,कोई गीता पाठ ,कोई देवी जागरण ,कोई सुन्दर काण्ड पाठ ,कोई कुरआन की अज़ान दे रहा है तो कोई बाईबिल से प्रयेर कर रहा है .परन्तु ये सभी पधितियाँ अवैज्ञानिक हैं और उनसे परमात्मा का सान्निध्य प्राप्त नहीं किया जा सकता है .जिस प्रकार किसी संस्था क़े निर्माण क़े समय पहले उसका विधान तैयार किया जाता है उसी प्रकार सृष्टी निर्माण क़े समय परमात्मा ने भी सृष्टी -संचालन हेतु सृष्टी क़े निर्माण क़े ही साथ विधान प्रस्तुत किया है जिसे हम वैदिक -ज्ञान कहते हैं .पूर्व सृष्टी की प्रलय क़े समय मोक्ष -प्राप्त आत्माओं में से श्रेष्ठ को परमात्मा ने इस सृष्टी का विधान प्रस्तुत करने हेतु इस पृथ्वी पर भेजा जिन्होंने ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्ववेद की रचना की है .इन वेदों में गूढ़ ज्ञान -विज्ञान क़े साथ -साथ परमात्मा से सान्निध्य स्थापित करने का ज्ञान भी बताया गया है .

वेदों में बताया गया है -परमात्मा का मुख अग्नि है .अग्नि में मंत्रोच्चार क़े साथ डाले गए पदार्थ वायु की सहायता से परमात्मा तथा सभी जड़ देवताओं तक पहुंचा दिए जाते हैं .अग्नि का गुण है पदार्थ को सूक्ष्म परमाणुओं (Atoms )में परिवर्तित कर देना और वायु उनको सम्बंधित तक पहुँचाने का कार्य करता है .हवन में डाली गई जडी -बूटियाँ ,बूरा ,गूगल ,घी ,किशमिश तथा आम की समिधा टी .बी .,टायफायड़ आदि विभिन रोगों क़े कीटाणुओं (BACTARIAS )को नष्ट करने का कार्य करते हैं .इससे पर्यावरण शुद्ध होता है और डाले गए पदार्थों का पचास प्रतिशत भाग नासिका क़े माध्यम से धूम्र -चिकित्सा (SMOKE TREATMENT )द्वारा हवन पर बैठे मनुष्यों को तुरन्त मिल जाता है शेष पचास प्रतिशत जन -कल्याण हेतु पुण्य क़े रूप में संचित हो जाता है .हवन करने से पहले परमात्मा से प्रार्थना की जाती है .प्रार्थना क़े वैज्ञानिक महत्त्व को अब   अमेरिकी चिकित्सा वैज्ञानिकों ने भी स्वीकार कर लिया है .८ सितम्बर २००३ को दैनिक जागरण ने प्रकाशित किया था कि सन १९६५ ई .में माउन्ट एवरेस्ट फतह करने वाले कैप्टन एम् .एस .कोहली ने अपनी पुस्तक " मिराकल आफ अरदास इनक्रेडिबल सर्वाइवर्स एंड एडवेंचर्स " में रहस्योदघाटन किया है कि अमेरिकी शोधकर्ताओं ने कुछ मरीजों क़े लिए दुआएं (प्रार्थनाएँ )कराईं तो यह सिद्ध हुआ कि जिन मरीजों का आपरेशन हुआ था और उनके लिए दुआ की गई उनके ठीक होने की रफ़्तार पचास से सौ प्रतिशत बढ़ गई .

महाभारत काल क़े बाद हमारी प्राचीन वैज्ञानिक हवन की पूजा पद्धति को छोड़ कर अन्य विकृत और अवैज्ञानिक पूजा पद्धतिओं को विकसित किया गया है और उसी का दुष्परिणाम हम सब भुगत रहे हैं .पोंगापंथी कर्मकांडियो ने हवन को ढकोसला बना कर रख दिया है और उपयुक्त तथा उचित प्रार्थनाओं को महत्त्व न देकर जनता को दिग्भ्रमित करके अपना उल्लू सीधा करते हैं .

यदि हम वैज्ञानिक पूजा (हवन )प्रारम्भ करने से पूर्व वैज्ञानिक विधि से प्रार्थना भी करें तो की गई प्रार्थनाओं क़े आधार पर परमात्मा मनुष्य की बात उसी प्रकार स्वीकार करता है जिस प्रकार माता -पिता अपने बच्चे क़े अनुनय -विनय को स्वीकार कर लेते हैं .यदि हम परमात्मा क़े गणपति रूप से रक्षा ,स्वास्थ्य आदि की प्रार्थना ,विष्णु स्वरूप से कल्याणकारी पालन की प्रार्थना तथा शिव स्वरूप से दीर्घायु और उत्तम जीवन -यापन की प्रार्थना हवन से पूर्व कर लें तो उस हवन द्वारा प्राप्त होने वाला सुफल द्विगुणित  हो सकता है .परन्तु आज क़े आपा -धापी क़े युग में लोग तीन घंटे पिक्चर हाल में बैठ सकते हैं ,सारी -सारी रात डिस्को पार्टी में बैठ सकते हैं ,न तो उनके पास प्रार्थना और हवन में बैठने का समय है न ही पोंगापंथियों  द्वारा अपना दायित्व निर्वहन किया जा रहा है ---परिणाम परिवारों ,समाज और राष्ट्र क़े विघटन क़े रूप में सामने है .हम मनुष्य हैं क्या हम मनन करेंगे कि पुनः अपनी प्राचीन पूजा (हवन )और प्रार्थना को अपना कर जीवन को सुखमय बना सकें ?


(यह आलेख पहली दफा २००३ में कायस्थ -सभा ,आगरा की त्रेमासिक पत्रिका "प्रेरणा "में फिर दूसरी बार  वैश्य -समुदाय की मांग पर उनकी त्रेमासिक पत्रिका "अग्र मन्त्र "क़े मई -जुलाई २००४ अंक में प्रकाशित हो चुका है .ब्लाग -जगत क़े जागरूक साथियों  क़े हितार्थ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है .अगले अंकों में स्तुतियों को देने 
का प्रयास करेंगे )


(डॉ.दाराल की नेक टिप्पणी क़े बाद यह कटिंग लगा दी गयी है.) 



(इस वीडियो में आप विदेशियों को गायत्री मन्त्र का पाठ करते भी देख सकते हैं)
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16-07-2016 

Monday, October 25, 2010

धर्म और विज्ञान

आज कल एक बहस आम तौर पर सुनी ,देखी और पढ़ी जा रही है कि,धर्म और विज्ञान में तालमेल होना चाहिए कि विज्ञान को धर्म के अधीन होना चाहिए कि ,धर्म को विज्ञान की राह का रोड़ा नहीं बनना चाहिए .यह सब इसलिए है कि धर्म और विज्ञान के गलत अर्थ निकले जा रहे हैं .वस्तुतः विज्ञान धर्म भी है और धर्म विज्ञान भी है -दोनों में कहीं कोई विरोध नहीं है .जो विषमता है वह व्याख्या करने वालों के स्वार्थ का खेल है .
धर्म -वह है जो शरीर को धारण करता है .
विज्ञान -किसी भी विषय के नियमबद्ध एवं क्रम -बद्ध अध्धयन को विज्ञान कहते हैं .
लेकिन लोग धर्म का अर्थ उपासना विधि से और विज्ञान का अर्थ प्रयोगशाला में सिद्ध किये जाने वाले तथ्यों से ले रहे हैं -यही झगड़ा है .
अध्यात्म -का भी गलत अर्थ निकला जा रहा है .दरअसल अध्यात्म =अध्य +आत्म है जिसका अर्थ हुआ आत्मा का अध्ययन .अपनी -२ आत्मा का अध्ययन करना ही अध्यात्म है;लेकिन ऐसा कोई नहीं करता है और दूसरों को अधार्मिक एवं गैर आध्यात्मिक बड़ी जल्दी करार दिया जाता है .
आस्तिक -जिसका अपने ऊपर विशवास है वह आस्तिक है और जिसका अपने ऊपर विशवास नहीं है वह नास्तिक है .स्वामी विवेकानंद ने ऐसी ही मीमांसा की है .यही तर्क -सगंत है .
 आत्मा -  आत्मा  का क्षय होता है अर्थात वजन भी होता है -गायत्री परिवार की पुस्तकों में आत्मा का वजन २० ग्रा.बताया गया है .दूसरों को मूर्ख बनाने वाली बात इससे ज्यादा कोई दूसरी हो ही नहीं सकती .
    वस्तुतः आत्मा -अदृश्य ,अजर ,अमर और अक्षय है .स्वामी दयानंद सरस्वती ने आत्मा को फ्लुइड (fluid ) बताया है .आत्मा जिस शरीर में प्रवेश करता है उसी का आकार ग्रहण कर लेता है .
  आत्मा और शरीर का सम्बन्ध अंधे व लंगड़े जैसा है .शरीर अँधा होता तथा आत्मा लंगड़ा .एक के बिना दूसरा कार्य नहीं कर सकता .शरीर तीन प्रकार के होते हैं :-
१ .स्थूल शरीर -जो भौतिक पदार्थों से बनता है और नश्वर है .
२ .कारण शरीर -जो आत्मा के साथ प्रेरक के रूप में चलता है.(किसी भी प्रकार की विकृती पहले कारण शरीर में होती है बाद में स्थूल शरीर में नजर आती है .चिकित्सक स्थूल शरीर की स्थिति के अनुसार इलाज करता है .वैज्ञानिक आधार वाला ज्योत्षी कारण शरीर के विकारों का पहले ही उपचार बता देता है .यदि तभी निराकरण कर लें तो स्थूल शरीर की विकृति और उसके इलाज से बच सकते हैं .)
३ .सूक्ष्म शरीर -भी आत्मा के साथ -२ चलता है और सूक्ष्म रूप से सभी कार्यों का लेखा -जोखा रखता है जो गुप्त रूप से चित्त पर अंकित होता रहता है -उसी को चित्रगुप्त कहते हैं .

लेकिन प्रचलन में चित्रगुप्त की एक अवैज्ञानिक कहानी चलती है;लोग उसी पाखण्ड को सही मानते हैं ..

पाखण्ड में आत्मा को परमात्मा का अंश कहा जाता है .यदि यह माना जाये तो सभी
कार्यों का दायित्व परमात्मा पर है और सेना ,पुलिस,न्याय तन्त्र कुछ रखने की जरूरत नहीं है .

आत्मा और परमात्मा सखा हैं और स्वतन्त्र हैं .

जल में शीतलता का गुण है तो वह समुद्र के जल में भी होगा और उससे अलग एक बूँद में भी .

 अग्नि में दग्धता का गुण है तो भट्ठी में भी होगा और एक चिंगारी में भी .

इसलिए अगर आत्मा -परमात्मा का अंश होता तो सत -चित -आनंद होता.लेकिन ऐसा तो नहीं है अतः सिध्द होता है की आत्मा -परमात्मा का अंश नहीं है उससे स्वतन्त्र है .

आत्मा इस संसार में कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है परन्तु फल भोगने हेतु परमात्मा के अधीन है .यह सारा संसार एक परीक्षालय है .यहाँ निरंतर परीक्षाएँ चल रही हैं .परमात्मा एक निरीक्षक के रूप में देख कर चुप रहता है परन्तु एक परीक्षक के रूप में कर्मों का फल देता है .

कर्म तीन प्रकार के होते हैं :-
१ .सद्कर्म ,२ .दुष्कर्म ,३ . अकर्म .

सद्कर्म का श्रेष्ठ ,दुष्कर्म का बुरा फल मिलता ही है .अकर्म वह कर्म है जो   फ़र्ज़ ,ड्यूटी ,कर्तव्य  किया   जाना चाहिए था ;किया नहीं गया .उदाहरण के लिए सड़क पर कराहते हुए व्यक्ति को देख कर कोई चिकित्सक इसलिए छोड़ कर चला जाये कि कानूनी जाल -जंजाल में कौन फंसे तो समाज और कानून की निगाह में अपराध न होते हुए भी परमात्मा के विधान में वह चिकित्सक दंड का भागीदार होगा .चक्रधर की चक्कलस में अशोक जी ने गाडी छूटने का जो उल्लेख किया है वह उनके ऐसे ही अकर्म का दंड था .

चाहे कोई  माने या न माने प्रकृती के नियमानुसार (according  to laws  of  nature ) इस जनम में जो कर्म फल अवशेष रह जाते हैं वे आगामी जनम का प्रारब्ध (भाग्य )बन जाते हैं .ज्योतिष में हम जनम -पत्र के माध्यम से इसे ज्ञात कर लेते हैं .मनुष्य अपने कर्मों के द्वारा अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा बना सकता है .जिस प्रकार धूप की तीव्रता और वर्षा से बचने के लिए छाता प्रयोग में लाया जाता है उसी प्रकार ज्योतिषीय उपायों द्वारा अनिष्ट से बचाव किया जाता है .परन्तु यदि ये उपाए वैज्ञानिक न हो कर आस्था और विश्वास का नाम लेकर ढोंग व पाखण्ड के हों तो व्यक्ति को कोई लाभ प्राप्त नहीं होता और ज्योतिष पर नाहक लांछन लगा दिया जाता है .गलती ढोगी बताने वाले की होती है ,ज्योतिष विज्ञान की नहीं .मानव जीवन को सुन्दर ,सुखद और समृद्ध बनाने वाला विज्ञान ही ज्योतिष है ;बाक़ी सब ढोंग व पाखण्ड ही है जिसका सहारा लेकर पोंगापंथी जनता को उलटे उस्तरे से मूढ़ रहे हैं .

रियूमर स्पिच्युटेड सोसाईटी  के लोग ढोंग व पाखण्ड को धर्म का नाम देकर नफरत और नुक्सान करने पर आमादा हैं .देश टूटा तो टूटा फिर टूटे तो टूटे ढोंगियों का तथाकथित धार्मिक वितंडावाद दरअसल साम्रज्य्वादियीं के हित साधन के लिए है .भारत में धर्मोन्माद फ़ैलाने के लिए फोर्ड फौन्डेशन ने बाकायदा चंदा दिया था और निर्लज्जता पूर्वक अपनी बेलेंस- शीट में दिखाया था .लेकिन फिर भी हमारे प्रबुध्द जनों की आँखें नहीं खुलती हैं .एक तरफ खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले वस्तुतः साम्राज्यवादियों को खुश करने के काम करते हैं ;चाहे वे जिस छेत्र में हों वहीँ गड़बड़ी करते हैं और दूसरों को बेवकूफ समझते हैं .हिटलर का साथी डा. गोयबल्स कहता था कि एक झूठ को सौ बार बोला जाये तो वह सच हो जाता है ,उसके भारतीय अनुयायी आत्मा को परमात्मा का अंश बताते नहीं थकते और उसका क्षरण होना भी बताते हैं .

आधुनिक विज्ञान अभी अपनी शैशवावस्था में है .अभी तक ब्रहम्मांड का कुल ४(चार ) प्रतिशत ही ज्ञान उपलब्ध हो पाया है उस पर भी भीषण झगड़ा है कि आधुनिक विज्ञान श्रेष्ठ है ."ब्रह्म वर्चसी"-पोस्ट में इस पर पहले ही प्रकाश डाला है .आधुनिक विज्ञान की नयी खोजें हमारे प्राचीन निष्कर्षों को सही ही सिध्द करने वाली है ,विरोधी नहीं हैं .जो लोग वैज्ञानिक खोजों को धर्म विरोधी बता रहे हैं वे दरअसल धर्म के मर्म को ही नहीं समझते .विज्ञान और धर्म एक दूसरे के पूरक हैं .(science  and dharam are complementary  and  supplementary  to each  other )   उदाहरणार्थ अभी जूलाई में वैज्ञानिकों की नयी खोज सामने आयी है कि पहले मुर्गी आयी फिर अंडा .इस पर तमाम जीव वैज्ञानिकों में ही मतभेद हो गए और इस खोज की आलोचना होने लगी .धैर्य पूर्वक ध्यान देन तो यह नयी खोज हमारी प्राचीन अवधारणा को पुष्ट करने वाली है कि ,सृष्टी का प्रारम्भ युवा शक्ति से हुआ है .मानव सृष्टी अफ्रीका ,यूरोप और तृवृष्टी (तिब्बत )में एक साथ युवा पुरुष और युवा स्त्री के कई जोड़ों के साथ प्रारम्भ हुयी और आज की मानव जाति उन्ही की संताने हैं .इसी प्रकार सभी प्राणी -पशु -पक्षी आदि की प्रारंभिक सृष्टी युवा रूप में हुयी है ---इसी तथ्य को यह नवीनतम खोज प्रमाणित करती है .कहाँ हुआ विज्ञान और धर्म में टकराव ? विज्ञान ने तो धार्मिक अवधारणा की पुश्टी ही की है .विज्ञान जहाँ पर छोड़ता है धर्म वहीं  से शुरू होता है .science  can reply  what and how but it can not reply why the dharam comes to stand the reply why ?
  
लेकिन धर्म का अर्थ ढोंग ,पाखण्ड ,आस्था या विश्वास कतई नहीं है .ये चीजें धर्म का तत्व न होकर  शोषण का माध्यम हैं .जो मानव द्वारा मानव के शोषण का साम्राज्यवादी हथियार हैं .जो लोग इन्हें धर्म बता रहे हैं वे पूरी तरह अधार्मिक हैं और मानव उत्थान से उनका कोई ताल्लुक नहीं है .धर्म और विज्ञान में कहीं कोई टकराव नहीं है . 
        




(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)
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15-04-2016 
16-04-2016 

Thursday, October 21, 2010

"भ्रष्टाचार " ------ विजय राजबली माथुर

*इस प्रकार की परस्पर प्रतिद्वंदिता ने सम्प्रदायवाद ,जातिवाद और धार्मिक वितंडावाद  को जन्म दिया अतः ये सब भ्रष्टाचार की ही परिधि में आते हैं .हमने देखा कि समाज में धनवान बनने की होड़ आर्थिक ,राजनीतिक ,साम्प्रदायिक ,जातीय ,भाषाई -भ्रष्टाचार और भड़कते विग्रह की जड़ है .

*जब तक मंदिर में चढावा और मज़ार पर चादर चढाने की प्रवृत्तियाँ रहेंगी तब तक हर लेन -देन में काम के बदले धन देने को गलत सिद्ध करना मुश्किल रहेगा


[विशेष:यह आलेख 16 नवम्बर 1987   को पाक्षिक समाचारपत्र 'फीरोजाबाद केसरी' में प्रकाशित हो चुका है.]
गौतम बुद्ध ने कहा था -दुःख है ,दुःख का कारण है ,दुःख दूर हो सकता है ,दुःख दूर करने का उपाय है .आज हम निसंकोच कह सकते हैं भ्रष्टाचार है ,भ्रष्टाचार का कारण है ,भ्रष्टाचार दूर हो सकता है ,भ्रष्टाचार दूर करने का उपाय है .तो आईये पहले जानें भ्रष्टाचार है क्या बला .भ्रष्टाचार =भ्रष्ट +आचार .अर्थात गलत आचरण चाहे वह आर्थिक ,राजनीतिक क्षेत्र में हो या सामाजिक ,पारिवारिक क्षेत्र में चाहे वह धन से सम्बंधित हो चाहे मन से -भ्रष्टाचार है .आज भ्रष्टाचार सार्वभौम सत्य के रूप में अपनी बुलंदगी पर है ,बगैर धन दिए आप आज किसी से काम नहीं करा सकते .पहले भ्रष्टाचार नीचे बहता था तो ऊपर बैठे लोगों का डर भी था पर अब तो भ्रष्टाचार सिर पर चढ़ा है -यथा राजा तथा प्रजा .ईमानदारी आज सबसे बड़ा अपराध है और वह दण्डित हुए बगैर रह नहीं सकती .तो साहब भ्रष्टाचार तो है ---सर्वव्यापी उसका कारण क्या है ? यह भी जान लिया जाये .
              समयांतर के साथ आज हमारा समाज एक कलयुग अर्थात कळ (मेकेनिकल )+युग (एरा ) में चल रहा है . आज हर कार्य तीव्र गति से और अल्प -श्रम द्वारा किया जा सकता है .जब थोड़े श्रम से अत्यधिक उत्पादन होगा और उत्पादित माल के निष्पादन अर्थात बिक्री की समस्या होगी तो उत्पादक तरह -२ के प्रलोभन कमीशन डिस्काउंट  ,रिबेट -रिश्वत आदि का प्रयोग करता है .यह प्रयोग ही भ्रष्टाचार है .आज हर कार्य धन से संपन्न होता है औरनार्जन चाहे जिस स्त्रोत से हो इसकी बाबत ध्यान दिए बगैर ही आपको सम्मान आपके द्वारा अर्जित धन के अनुपात में ही आपको प्राप्त होगा . ऐसी स्थिति धन -संग्रह की प्रवृति को जन्म देती है और धन प्राप्ति के लिए नाना -विधियाँ विकसित होती जाती हैं .शीघ्रतिशीघ्र  धनवान बनने की लालसा में ही दहेज़ प्रणाली विकसित की गई क्या यह भ्रष्टाचार नहीं है ? फिर दहेज़ के लिए वधु का दाह भीषण भ्रष्टाचार क्यों नहीं है ? आप एक डा . एक वकील या एक व्यापारी हैं ,आपको अपनी दुकान चलने के लिए ग्राहकों की आवश्यकता है आपने अपनी मेकेनिकल (कलयुगी )बुद्धी से अपनी जाति ,धर्म अथवा सम्प्रदाय के उत्थान का बीड़ा उठा लिया और आप उस सम्बंधित वर्ग के ग्राहकों के बलबूते अपने क्षेत्र में सफल हो गए .इस प्रकार की परस्पर प्रतिद्वंदिता ने सम्प्रदायवाद ,जातिवाद और धार्मिक वितंडावाद  को जन्म दिया अतः ये सब भ्रष्टाचार की ही परिधि में आते हैं .हमने देखा कि समाज में धनवान बनने की होड़ आर्थिक ,राजनीतिक ,साम्प्रदायिक ,जातीय ,भाषाई -भ्रष्टाचार और भड़कते विग्रह की जड़ है .

इससे नतीजा निकलता है कि जब तक समाज में धन का महत्त्व इसी प्रकार बना रहेगा तब तक भ्रष्टाचार भी बना रहेगा .धन के महत्त्व पर आधारित अर्थव्यवस्था और तदनुरूप राजनीतिक प्रणाली को बदले बगैर भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं हो सकता .
जब तक मंदिर में चढावा और मज़ार पर चादर चढाने की प्रवृत्तियाँ रहेंगी तब तक हर लेन -देन में काम के बदले धन देने को गलत सिद्ध करना मुश्किल रहेगा क्योंकि जब विधाता ही बगैर किसी आश्वासन के कुछ करने को तैयार
नहीं तब मनुष्य तो मन का कलुष है ही .
जब भ्रष्टाचार दूर किया जा सकता है तो उसका उपाय भी मौजूद है ---धन आधारित समाज अर्थात पूंजीवाद का विनाश .पूंजीवाद को समाप्त कर जब श्रम के महत्त्व पर आधारित समाज व्यवस्था को स्थापित कर दिया जायेगा तो भ्रष्टाचार स्वतः ही समाप्त हो जायेगा .परन्तु समाजवाद पर आधारित व्यवस्था कौन स्थापित करेगा ,कैसे करेगा जब सभी राजनीतिक दल तो समाजवाद को अपना अभीष्ट लक्ष्य घोषित करते हैं .आज क्या इंदिरा (राजीव ) कांग्रेस क्या भा .ज .पा. और जन -मोर्चा सभी तो समाजवाद के अलमबरदार हैं फिर क्यों नहीं आया समजवादी समाज आजादी के चालीस वर्षों बाद भी .निश्चय ही प्रयास नहीं किया गया ,नहीं किया जा रहा और न ही किया जायेगा .कौन है जो प्राप्त सुविधा को स्वेच्छा  से छोड़  देगा ,इसलिए जनता को गुमराह करने के लिए समाजवाद  का नाम लेकर दरअसल पूंजीवाद को ही सबल किया गया है .तभी पनडुब्बी ,तोप आदि के भ्रष्टाचार चल सके हैं और कामयाब हो रहे हैं .
        यदि हम मनसा -वाचा -कर्मणा भ्रष्टाचार दूर करना चाहते हैं .तो हमें मन ,वचन और कर्म से ही उन समाजवादियों का साथ देना होगा जिन्होंने इस धरती के आधे भाग पर और आबादी के एक तिहाई भाग पर वास्तविक समाजवादी समाज की स्थापना की है .



 ( इस  ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Tuesday, October 19, 2010

आपने दशहरा कैसे मनाया ?

परसों  आश्विन शुक्ल पक्ष  की दशमी थी जिसे विजया दशमी के रूप में मनाया जाता है .किसी ने रावण का पुतला फूंक कर ,किसी ने अखंड रामायण का पाठ बैठा कर ,आपने भी किसी तरह मनाया ही होगा ,वह तो आप ही बता सकते है ,हमने कैसे मनाया आपको बता देते हैं .हमने तो साधारण तरीके से हवन किया उसमे -अथर्ववेद कांड ३ के सूक्त १९ के मन्त्र १ से ८ एवं अ.वेद कांड ११ सूक्त ९ के मन्त्र १ से ३ कुल ग्यारह विशेष मन्त्रों से अतिरिक्त आहूतिया दी .हम तो किसी प्रकार के पाखण्ड का झमेला करते नहीं हैं ,हम जैसा कि मेरी श्रीमती जी ने इसी ब्लाग में "मानवता की सेवा " शीर्षक लेख में बताया है लोगो के भले के उपाय करते ,बताते और लिखते हैं .श्री दीनानाथ " दिनेश"जी ने सच्ची पूजा के बारे में कहा है ,प्रस्तुत है :-

   जाग-२ रे जीव  जगत में क्या न तुझे अब भी सूझा .
   उसे ह्रदय से लगा न जिसका कोई भी अपना दूजा ..
  सच्चा सेवा भाव इसी में शुद्ध भक्ति -भंडार भरा .
  प्राणी मात्र से प्रेम यही है अलख निरंजन की पूजा ..
+      +     +    +      +  +  +  +   +
धरती पर सुख -शांती बढाओ ,देकर निज श्रम -शक्ति .
 मानवता का अर्थ यही है ,और यही प्रभु -भक्ति ..

आज कल धर्म और विज्ञान को लेकर तरह -२ की भ्रांतियां फैलाई जा रही हैं ;आत्मा -परमात्मा का मखौल उड़ाया जा रहा है .रयूमर  स्पीचउटेड सोसाईटी के लोग ब्लाग जगत में भी फ़ैल गए है वे जान-बूझ कर उल्टी -पुलटी बातें लिख कर गंभीर लोगो को उसी प्रकार आउट करते जा रहे हैं जिस प्रकार ख़राब मुद्रा ,अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है .उस पर तुर्रा यह कि इसे लोगों को 'तितली ,मधु -मक्खी और डरपोंक' की तरह भाग जाने की संज्ञा दी जा रही है .
जिन विषयों पर विस्तार से अपने इस ब्लाग में पहले भी लिख चुका हूँ और आगे लिखने के क्रम में है उन पर ख्वामख्वाह  की बहसें चलायी जा रहीं हैं .ऐसे लोग यह भूल रहे हैं कि सच्चाई छिप नहीं सकती लाख दबाने पर भी ,खैर अपनी -२ अक्ल से ही कोई भी चल सकता है .
अब दीपावली आ रही है ,अभी से आप सब को बहुत -२ शुभ -कामनाएं .

(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Saturday, October 16, 2010

क्रांतिकारी राम- (अंतिम भाग) ---विजय राजबली माथुर

पिछली पोस्ट से आगे.....
(फोटो साभार:गूगल)
साम्राज्यवादी -विस्तारवादी रावण के परम मित्र  बाली को उसके विद्रोही भाई  सुग्रीव की मदद से समाप्त  कर के राम ने अप्रत्यक्ष रूप से साम्राज्यवादियों की शक्ति को कमजोर कर दिया.इसी प्रकार रावण के विद्रोही भाई विभीषण से भी मित्रता स्थापित कर के और एयर मार्शल (वायुनर उर्फ़ वानर) हनुमान के माध्यम से साम्राज्यवादी रावण की सेना व खजाना अग्निबमों से नष्ट करा दिया.अंत में जब राम के नेतृत्व में राष्ट्रवादी शक्तियों और रावण की साम्राज्यवाद समर्थक शक्तियों में खुला युद्ध हुआ तो साम्राज्यवादियों की करारी हार हुई क्योंकि,कूटनीतिक चतुराई से साम्राज्यवादियों को पहले ही खोखला किया जा चुका था.जहाँ तक नैतिक दृष्टिकोण का सवाल है सूपर्णखा का अंग भंग कराना,बाली की विधवा का अपने देवर सुग्रीव से और रावण की विधवा का विभीषण से विवाह कराना* तर्कसंगत नहीं दीखता.परन्तु चूँकि ऐसा करना साम्राज्यवाद का सफाया कराने के लिए वांछित था अतः राम के इन कृत्यों पर उंगली नहीं उठायी जा सकती है.

अयोध्या लौटकर राम ने भारी प्रशासनिक फेरबदल करते हुए पुराने प्रधानमंत्री वशिष्ठ ,विदेश मंत्री सुमंत आदि जो काफी कुशल और योग्य थे और जिनका जनता में काफी सम्मान था अपने अपने पदों से हटा दिया गया.इनके स्थान पर भरत को प्रधान मंत्री,शत्रुहन को विदेश मंत्री,लक्ष्मण को रक्षा मंत्री और हनुमान को प्रधान सेनापति नियुक्त किया गया.ये सभी योग्य होते हुए भी राम के प्रति व्यक्तिगत रूप से वफादार थे इसलिए राम शासन में निरंतर निरंकुश होते चले गए.अब एक बार फिर अपदस्थ वशिष्ठ आदि गणमान्य नेताओं ने वाल्मीकि के नेतृत्व में योजनाबद्ध तरीके से सीता को निष्कासित करा दिया जो कि उस समय   गर्भिणी थीं और जिन्होंने बाद में वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय ले कर लव और कुश नामक दो जुड़वाँ पुत्रों को जन्म दिया.राम के ही दोनों बालक राजसी वैभव से दूर उन्मुक्त वातावरण में पले,बढे और प्रशिक्षित हुए.वाल्मीकि ने लव एवं कुश को लोकतांत्रिक शासन की दीक्षा प्रदान की और उनकी भावनाओं को जनवादी धारा  में मोड़ दिया.राम के असंतुष्ट विदेश मंत्री शत्रुहन लव और कुश से सहानुभूति रखते थे और वह यदा कदा वाल्मीकि के आश्रम में उन से बिना किसी परिचय को बताये मिलते रहते थे.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के परामर्श पर शत्रुहन ने पद त्याग करने की इच्छा को दबा दिया और राम को अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति से अनभिज्ञ रखा.इसी लिए राम ने जब अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया तो उन्हें लव-कुश के नेतृत्व में भारी जन आक्रोश का सामना करना पडा और युद्ध में भीषण पराजय के बाद जब राम,भारत और शत्रुहन बंदी बनाये जा कर सीता के सम्मुख पेश किये गए तो सीता को जहाँ साम्राज्यवादी -विस्तारवादी राम की पराजय की तथा लव-कुश द्वारा नीत लोकतांत्रिक शक्तियों की जीत पर खुशी हुई वहीं मानसिक विषाद भी कि,जब राम को स्वयं विस्तारवादी के रूप में देखा.भारी मानसिक आघात के कारण सीता का ब्रेन हैमरेज से प्राणांत हो गया.वाल्मीकि,वशिष्ठ आदि के हस्तक्षेप से लव-कुश ने राम आदि को मुक्त कर दिया.यद्यपि शासन के पदों पर राम आदि बने रहे तथापि देश का का आंतरिक प्रशासन लव और कुश के नेतृत्व में पुनः लोकतांत्रिक पद्धति पर चल निकला और इस प्रकार राम की छाप जन-नायक के रूप में बनी रही और आज भी उन्हें इसी रूप में जाना जाता है.

(विशेष-पाठकों की सुविधा के लिए इस आलेख को यहाँ दो भागों में प्रस्तुत किया गया है यद्यपि यह सम्पूर्ण आलेख एक पूर्ण किश्त में 1 फरवरी 1988 को पाक्षिक समाचार पत्र  'फीरोजाबाद केसरी'  में प्रकाशित हो चुका है.)

* 'सत्यार्थ प्रकाश' में दे वर विवाह पद्धति का उल्लेख मिलता है -प्रतीत होता है राम ने इसी वैदिक प्रक्रिया का पालन किया था.





(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Friday, October 15, 2010

क्रांतिकारी राम --(भाग:1)---विजय राजबली माथुर

(चित्र साभार:गूगल)

महात्मा गांधी ने भारत में राम राज्य का स्वप्न देखा था.राम कोटि-कोटि जनता के आराध्य हैं.प्रतिवर्ष दशहरा और दीपावली पर्व राम कथा से जोड़ कर ही मनाये जाते हैं.परन्तु क्या भारत में राम राज्य आ सका या आ सकेगा राम के चरित्र को सही अर्थों में समझे बगैर?जिस समय राम का जन्म हुआ भारत भूमि छोटे छोटे राज तंत्रों में बंटी हुई थी और ये राजा परस्पर प्रभुत्व के लिए आपस में लड़ते थे.उदहारण के लिए कैकेय (वर्तमान अफगानिस्तान) प्रदेश के राजा और जनक (वर्तमान बिहार के शासक) के राज्य मिथिला से अयोध्या के राजा दशरथ का टकराव था.इसी प्रकार कामरूप (आसाम),ऋक्ष प्रदेश (महाराष्ट्र),वानर प्रदेश (आंध्र)के शासक परस्पर कबीलाई आधार पर बंटे हुए थे.वानरों के शासक बाली ने तो विशेष तौर पर रावण जो दूसरे देश का शासक था,से संधि कर रखी  थी कि वे परस्पर एक दूसरे की रक्षा करेंगे.ऎसी स्थिति में आवश्यकता थी सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में पिरोकर साम्राज्यवादी ताकतों जो रावण के नेतृत्व में दुनिया भर  का शोषण कर रही थीं का सफाया करने की.लंका का शासक रावण,पाताल लोक (वर्तमान U S A ) का शासक ऐरावन और साईबेरिया (जहाँ छः माह की रात होती थी)का शासक कुंभकर्ण  सारी दुनिया को घेर कर उसका शोषण कर रहे थे उनमे आपस में भाई चारा था. 

भारतीय राजनीति के तत्कालीन विचारकों ने बड़ी चतुराई के साथ कैकेय प्रदेश की राजकुमारी कैकयी के साथ अयोध्या के राजा दशरथ का विवाह करवाकर दुश्मनी को समाप्त करवाया.समय बीतने के साथ साथ अयोध्या और मिथिला के राज्यों में भी विवाह सम्बन्ध करवाकर सम्पूर्ण उत्तरी भारत की आपसी फूट को दूर कर लिया गया.चूँकि जनक और दशरथ के राज्यों की सीमा नज़दीक होने के कारण दोनों की दुश्मनी भी उतनी ही ज्यादा थी अतः इस बार निराली चतुराई का प्रयोग किया गया.अवकाश प्राप्त राजा विश्वमित्र जो ब्रह्मांड (खगोल) शास्त्र के ज्ञाता और जीव वैज्ञानिक थे और जिनकी  प्रयोगशाला में गौरय्या चिड़िया तथा नारियल वृक्ष का कृत्रिम रूप से उत्पादन करके इस धरती  पर सफल परीक्षण किया जा चुका था,जो त्रिशंकु नामक कृत्रिम उपग्रह (सेटेलाइट) को अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित कर चुके थे जो कि आज भी आकाश में ज्यों का त्यों परिक्रमा कर रहा है,ने विद्वानों का वीर्य एवं रज (ऋषियों का रक्त)ले कर परखनली के माध्यम से एक कन्या को अपनी प्रयोगशाला में उत्पन्न किया जोकि,सीता नाम से जनक की दत्तक पुत्री बनवा दी गयी. वयस्क होने पर इन्हीं सीता को मैग्नेटिक मिसाइल (शिव धनुष) की मैग्नेटिक चाभी एक अंगूठी में मढवा कर दे दी गयी जिसे उन्होंने पुष्पवाटिका में विश्वामित्र के शिष्य के रूप में आये दशरथ पुत्र राम को सप्रेम भेंट कर दिया और जिसके प्रयोग से राम ने उस मैग्नेटिक मिसाइल उर्फ़ शिव धनुष को उठाकर नष्ट कर दिया जिससे  कि इस भारत की धरती पर उसके प्रयोग से होने वाले विनाश से बचा जा सका.इस प्रकार सीता और राम का विवाह उत्तरी भारत के दो दुश्मनों को सगे दोस्तों में बदल कर जनता के लिए वरदान के रूप में आया क्योंकि अब संघर्ष प्रेम में बदल दिया गया था.

कैकेयी के माध्यम से राम को चौदह  वर्ष का वनवास दिलाना राजनीतिक विद्वानों का वह करिश्मा था जिससे साम्राज्यवाद के शत्रु   को साम्राज्यवादी धरती पर सुगमता से पहुंचा कर धीरे धीरे सारे देश में युद्ध की चुपचाप तय्यारी की जा सके और इसकी गोपनीयता भी बनी रह सके.इस दृष्टि से कैकेयी का साहसी कार्य राष्ट्रभक्ति में राम के संघर्ष से भी श्रेष्ठ है क्योंकि कैकेयी ने स्वयं विधवा बन कर जनता की प्रकट नज़रों में गिरकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थों की बलि चढ़ा कर राष्ट्रहित में कठोर निर्णय लिया.निश्चय ही जब राम के क्रांतिकारी क़दमों की वास्तविक गाथा लिखी जायेगी कैकेयी का नाम साम्राज्यवाद के संहारक और राष्ट्रवाद की सजग प्रहरी के रूप में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा.

अगली पोस्ट में जारी.........http://krantiswar.blogspot.in/2010/10/blog-post_16.html

Typist -यश(वन्त)


(इस ब्लॉग पर प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है)

Thursday, October 14, 2010

उठो जागो और महान बनो

प्रस्तुत शीर्षक स्वामी विवेकानंद द्वारा युवा शक्ति से किया गया आह्वान है .आज   देश के हालात कुछ  वैसे हैं :-मर्ज़ बढ़ता गया ज्यों -२ दवा की .करम खोटे हैं तो ईश्वर  के गुण गाने से क्या होगा ,किया  परहेज़ न कभी  तो दवा खाने से क्या होगा.. आज की युवा शक्ति को तो मानो सांप   सूंघ  गया है वह कोई जोखिम उठाने को तैयार नहीं है और हो भी क्यों ? जिधर देखो उधर ओसामा बिन लादेन बिखरे पड़े हैं, चाहें वह ब्लॉग जगत ही क्यों न हो जो हमारी युवा शक्ति को गुलामी की प्रवृत्तियों से चिपकाये रख कर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ती करते रहते हैं.अफगानिस्तान हो ,कश्मीर हो ,देश भर में फैले नक्सलवादी हों या किसी भी तोड़ -फोड़ को अंजाम देने वाले आतंकवादी हों सब के पीछे कुत्सित मानसिकता वाले बुर्जुआ लोग ही हैं .वैसे तो वे बड़े सुधारवादी ,समन्वय वादी बने फिरते हैं,किन्तु यदि उनके ड्रामा को सच समझ कर उनसे मार्ग दर्शन माँगा जाये तो वे गुमनामी में चले जाते हैं,लेकिन चुप न बैठ कर युवा चेहरे को मोहरा बना कर अपनी खीझ उतार डालते हैं .
ऐसा नहीं है कि यह सब आज हो रहा है.गोस्वामी तुलसीदास ,कबीर ,रैदास ,नानक ,स्वामी दयानंद ,स्वामी विवेकानंद जैसे महान विचारकों को अपने -२ समय में भारी विरोध का सामना करना पड़ा था .१३ अप्रैल २००८ के हिंदुस्तान ,आगरा के अंक में नवरात्र की देवियों के सम्बन्ध में किशोर चंद चौबे साहब का शोधपरक लेख प्रकाशित हुआ था ,आपकी सुविधा के लिए उसकी स्केन प्रस्तुत कर रहे हैं :
बड़े सरल शब्दों में चौबेजी ने समझाया है कि ये नौ देवियाँ वस्तुतः नौ औषधियां  हैं जिनके प्राकृतिक संरक्षण तथा चिकित्सकीय प्रयोग हेतु ये नौ दिन निर्धारित किये गए हैं जो सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायन रहते दो बार सार्वजानिक रूप से पर्व या उत्सव के रूप में मनाये जाते हैं लेकिन हम देखते हैं कि ये पर्व अपनी उपादेयता खो चुके हैं क्योकि इन्हें मनाने के तौर -तरीके आज बिगड़ चुके हैं .दान ,गान ,शो ,दिखावा ,तड़क -भड़क ,कान -फोडू रात्रि जागरण यही सब हो रहा है जो नवरात्र पर्व के मूल उद्देश्य से हट कर है .पिछले एक पोस्ट में मधु गर्ग जी के आह्वान  का उल्लेख किया था जिस पर तालिबान स्टाइल युवा चेहरे की ओर से असहमति प्रकट की गयी है


'क्रन्तिस्वर' में प्रस्तुत आलेख लोगों की सहमति -असहमति पर निर्भर नहीं हैं -यहाँ ढोंग -पाखण्ड का प्रबल विरोध और उनका यथा शीघ्र उन्मूलन करने की अपेक्षा की जाती है .डा .राम मनोहर लोहिया स्त्री -स्वातंत्र्य  के प्रबल पक्षधर  थे ,राजा राम मोहन राय ने अंग्रेजों पर दबाव डाल कर विधवा -पुनर्विवाह का कानून बनवाया था .स्वामी दयानंद ने कोई १३५ वर्ष पूर्व मातृ - शक्ति को ऊपर उठाने का अभियान चलाया था :-

झूठी रस्मों को जिस दिन नीलाम कराया जायेगा .....वीर शहीदों के जिस दिन कुर्बानी की पूजा होगी ......

मथुरा के आर्य भजनोपदेशक विजय सिंह जी के ओजपूर्ण बोलों का अवलोकन करें ---

हमें उन वीर माओं की कहानी याद  आती है .
मरी जो धर्म की खातिर कहानी याद आती है ..
बरस चौदह रही वन में पति के संग सीताजी .
पतिव्रत धर्म मर्यादा निभानी याद आती है ..
कहा सरदार ने रानी निशानी चाहिए मुझको .
दिया सिर काट रानी ने निशानी याद आती है ..
हजारों जल गयीं चित्तोड़ में व्रत  धर्म का लेकर .
चिता पद्मावती तेरी सजानी याद आती है ..
कमर में बांध कर बेटा लड़ी अंग्रेजों से डट कर .
हमें वह शेरनी झाँसी की रानी याद आती है ..

आज के 'हिंदुस्तान' में टी .वी .पत्रकार विजय विद्रोही  जी ने "आँगन से निकलीं मार लिया मैदान" शीर्षक से लेख की शुरुआत इस प्रकार की है --"दिल्ली में कामन वेल्थ खेलों का प्रतीक शेरा था ,लेकिन ये खेल उन शेरनियों के लिए याद किये जायेंगे जिन्होंने मेडल पर मेडल जीते".उन्होंने इस क्रम में नासिक की कविता ,हैदराबाद की पुशूषा मलायीकल ,रांची की दीपिका  ,राजस्थान में ब्याही हिसार की कृष्णा पूनिया ,हरवंत कौर ,सीमा अंतिल ,भिवानी की गीता ,बबीता और अनीता बहनों का विशेष नामोल्लेख  किया है जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों  से संघर्ष  करके देश का नाम रोशन किया है .  
 इन नवरात्रों में नारी -शक्ति के लिए सड़ी -गली गलत (अवैज्ञानिक )मान्यताओं को ठुकरा कर वैज्ञानिक रूप से मानाने हेतु विद्वानों के विचार संकलित कर प्रस्तुत किये हैं .लाभ उठाना अथवा वंचित रहना पूर्ताया मतृ -शक्ति पर निर्भर करता है .

Wednesday, October 13, 2010

"ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम''

सातवीं शताब्दी में बाण भट्ट ने कादम्बरी में लिखा है कि लड़कियों का भी उपनयन होता था .वर्णन है कि महाश्वेता ने जनेऊ पहन रक्खा है.जनेऊ या उपनयन संस्कार शिक्षा प्रारम्भ करने के समय  किया जाता है तब तक लड़के -लड़कियों का भेद हमारे देश में नहीं था .यह तो विदेशी शासकों ने भारतीय समाज की रीढ़ -परिवारों को कमज़ोर करने के लिए लड़कियों की उपेक्षा की कहानियें चाटुकार और लालची विद्वानों से धार्मिक -ग्रंथों में उस समय लिखवाई हैं जिनका दुष्परिणाम आज तक सामजिक विद्वेष व विघटन में परिलक्षित हो रहा है .
जनेऊ के तीन धागे :-१.आध्यात्मिक ,२ .आधिदैविक ,३ .आधिभौतिक तीनो दुखों को दूर करने की प्रेरणा देते हैं .
(अ)-माता ,पिता और गुरु का ऋण उतरने की  प्रेरणा .
(ब )-अविद्या,अन्याय और आभाव दूर करने की जीवन में प्रेरणा .
(स )-हार्ट (ह्रदय ),हार्निया (आंत्र स्खलन ),हाईड्रोसिल /युरेटस  सम्बंधी बीमारयों का शमन ये जनेऊ के तीन धागे ही करते हैं -इसीलिए शौच /लघु शंका करते समय इन्हें कान पर लपेटने की व्यवस्था थी .
 जब ,तब लड़का -लड़की का समान रूप से जनेऊ होता था तो स्वाभाविक रूप से पुत्री -पुत्र सभी के कल्याण की कामना की  जाती थी .गुलाम भारत में पोंगापंथ  के विकास के साथ -२(जो आज निकृष्टत्तम  स्तर पर सर्वव्याप्त है )लड़का -लड़की में भेद किया जाने लगा .लड़कियों /स्त्रियों को दबाया -कुचला जाने लगा जिसे आजादी के ६३ वर्ष बाद भी दूर नहीं किया जा सका है .इन नवरात्रों में स्त्री -शक्ति आगे बढ़ कर व्रत (संकल्प )करें कि अन्यायपूर्ण पोंगापंथ का शीघ्र नाश करेंगी तभी नारी -मुक्ति संभव है .खैर लीजिये कुंजिका -स्तोत्र सुनिये ;-

Tuesday, October 12, 2010

मातृ शक्ति अपना महत्व पहचाने

वीर शिरोमणि झाँसी वाली रानी लक्ष्मी बाई (जिन्होंने १८५७ की क्रांति में साम्राज्यवादी ब्रिटिश सत्ता को ज़बरदस्त चुनौती दी थी )हों या उनसे भी पूर्व वीर क्षत्र साल की माँ रानी सारंधा हों (जिन्होंने विदेशी शत्रु के सम्मुख घुटने टेकने की बजाय अपने मरणासन पति राजा चम्पत राय को कटार भोंक कर स्वंय भी प्राणाहुति दे दी थी )या रानी पद्मावती और उनकी सहयोगी साथिने हों ऐसे अनगिनत विभूतिया हमारे देश में हुई हैं जो व्यवस्था से टकरा कर अमर हो गईं और एक मिसाल छोड़ गईं आने वाली पीढियो के लिए ,परन्तु खेद है कि आज हमारी मातृ  शक्ति इन कुर्बानियों  को भुला चुकी है . यों तो ऋतु परिवर्तन पर स्वास्थ्य रक्षा हेतु नवरात्र पर्व का सृजन हुआ है और उपवास स्त्री -पुरुष सभी के लिए बताया गया है परन्तु करवा चौथ जैसे भेद -भाव मूलक उपवास स्त्री को दंड से अधिक कुछ नहीं हैं ,उसका कोई औचित्य नहीं है .नवरात्रों का उपवास हमारे स्थूल ,कारण और सूक्ष्म शरीर की शुद्धि  करता है.लोग भ्रम वश इसे व्रत कहते हैं जबकि व्रत का मतलब संकल्प से होता है.जैसे कोई सिगरेट,शराब आदि बुरी आदतें  छोड़ने का संकल्प ले तो यह व्रत होगा .
श्री श्री रवि शंकर कहते हैं -उपवास के द्वारा शरीर विषाक्त पदार्थों से मुक्त हो जाता है ,मौन द्वारा वचनों में शुद्धता आती है और बातूनी मन शांत होता है और ध्यान के द्वारा अपने अस्तित्व की गहराईयों में डूब कर हमें आत्म निरीक्षण का अवसर मिलता है .यह आंतरिक यात्रा हमारे बुरे कर्मों को समाप्त करती है.नवरात्र आत्मा अथवा प्राण का उत्सव है जिसके द्वारा ही महिषासुर (अर्थात जड़ता ),शुम्भ -निशुम्भ (गर्व और शर्म )और मधु -कैटभ (अत्यधिक राग -द्वेष )को नष्ट किया जा सकता है .जड़ता ,गहरी नकारात्मकता औरमनोग्रंथियां (रक्त्बीजासुर ),बेमतलब का वितर्क (चंड -मुंड )और धुंधली दृष्टि (धूम्र लोचन )को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठा कर ही दूर किया जा सकता है .
 आज जनता इन विद्वानों का मान तो करती है परन्तु उनके द्वारा बताई बातों को मानने को कतई तैयार नहीं है .हमारे ब्लॉग जगत के एक विद्वान कमेन्ट करने में बहुत माहिर हैं ,मैंने उनसे इस समस्या पर मार्ग दर्शन माँगा तो वह पलायन कर गए .खैर सुनिये एक और दुर्गा स्तुति :-

Monday, October 11, 2010

"गुलामी से पहले ऐसा नहीं था "







प्रस्तुत कटिग जो बयान कर रहीं है वैसा हमारे देश में प्राचीन काल से नहीं था .यह सब ११ सौ १२ सौ वर्षों की गुलामी का नतीजा है .परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला होता  है और माँ बच्चे की प्रथम गुरु होती है .विदेशी शासकों ने देशी विद्वानों को प्रलोभन दे कर ऐसे धार्मिक नियमों का निरूपण कराया जो परिवार और उसमे मात्र शक्ति की भूमिका का क्षरण करते थे .जैसे -२ गुलामी मज़बूत होती गई ऐसी -वैसी कुरीतियाँ जोर पकडती गईं और नतीजा आज सबके सामने है .प्राचीन भारत में स्त्री व पुरुष का समान महत्व था या कुछ अधिक ही स्त्री का महत्व था .सीता ने तो राम के शासन के विरुद्ध विद्रोह ही कर दिया था और अपने पुत्रों से उन्हें परास्त भी करा दिया था .रानी कैकेयी ने भी महाराजा दशरथ के निर्णय को उलट दिया था .आधुनिक युग में भी हरिहर और बुक्का नामक दो भाइयों ने जिस विजय नगर साम्राज्य की स्थापना की थी उसमे भी स्त्री सेनापति थीं .आज महिलाएं यदि शोषण के विरुद्ध मनसा -वाचा -कर्मणा संग गठित हो तो कोई गुलामी का नियम समाज में टिक ही नहीं सकता .
  मैंने कई कमुनिस्ट परिवारों में गुलामी के प्रतीक नियमों का पालन होते देखा है और इसका कारण उन परिवारों की महिलाएं स्वंय ही हैं .उ .प्र .के शिक्षा मंत्री रहे वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता का .झारखंडे राय की मृत्यु के उपरांत उनकी पत्नी ने देश भर के कामरेड्स को "ब्रहम भोज "का निमंत्रण भेजा था .
 आज पूर्ण शिक्षित और आत्म निर्भर महिलाएं भी गुलामी के प्रतीकों को (जिनका कोई वैज्ञानिक महत्व नहीं है )अपना गौरव मान कर शिरोधार्य किये हुए हैं क्यों ?हाथ कंगन को आरसी क्या ? पढ़े लिखे को फारसी क्या ? मेरी छोटी बहन डा .शोभा माथुर ने हिन्दी व संस्कृत में एम् .ए .,संस्कृत में पी .एच .ड़ी की है .बरुआ सागर झांसी के डिग्री कालेज में अधिवक्ता तथा आर्मी स्कूल में वाइस प्रिंसिपल रहीं हैं .क्या मै उन्हें संकीर्ण प्रथाओं को त्यागने का परामर्श दे सकता हूँ ?क्या वह मान लेंगी ?बहन को क्या कहें जब पत्नी पूनम जो एम् .ए .,बी .एड .,एम् .बी .ए .हैं और एस .सी.इ .आर .टी .,पटना के माध्यम से जनता को जागरूक कर चुकी हैं .स्कूलों में बच्चों को पढ़ा चुकी हैं ,मेरी सारी क्रांतिकारिता को "करवा चौथ "करके ध्वस्त कर देती हैं .सामाजिक रूढियो की विकृतियों को केवल महिलाएं ही तोड़ सकती हैं .मै अपने अनुभव के आधार पर पुरुषों को बेबस मानता हूँ .खैर नवरात्रों में देवी दुर्गा का यह अर्गला स्तोत्र सुनीये  जिसमे स्त्री शक्ति का कितना महत्व  है :-








Sunday, October 10, 2010

राम -राज्य और भाजपा सरकार

(यह लेख १४.८.१९९१ के दैनिक देशरत्न ,आगरा में तब छपा था जब उ .प्र .में कल्याण सिंह की भाजपा सरकार थी ;आज भी परिस्थतियाँ वैसी ही हैं ,अतः यहाँ पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ )

महात्मा गाँधी ने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जिस स्वराज्य की कल्पना की थी वह रामराज्य  लाने की कल्पना थी. हमारे प्रदेश में हाल ही में भाजपा राम का नाम लेकर सत्तारूढ़ हुई है और हमारे मुख्यमंत्री रामराज्य लाने का आश्वासन दे रहे हैं .यदि ऐसा संभव होता है तो स्वराज्य का असली उद्देश्य भी पूरा हो सकेगा .अभी तक हमारी स्वतंत्रता अधूरी है परन्तु गांधीजी के रामराज्य और भाजपा के रामराज्य में मौलिक अंतर है.अब प्रश्न यह है कि कौन सा राम राज्य मर्यादा पुरोषत्तम श्री राम के शासन के अनुकूल होगा . सर्वप्रथम हम देखते हैं कि महात्मा गाँधी ने जब राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन की बागडोर सम्हाली हमारा देश ब्रिटिश साम्राज्यवाद की दासता में जकड़ा हुआ था.यह दासता मात्र राजनीतिक ही नहीं आर्थिक भी थी.वे हमारे ही कच्चे माल से अपने देश में तैयार उत्पादन को हमारे ही देश में ऊंची कीमतों पर बेचते थे .हमारी हस्तकला और दस्तकारी को समूल विनष्ट करने में ब्रिटिश सम्रज्यवाद का ही हाथ है .उनसे पूर्व मुग़ल काल तक जितने भी विदेशी शासक आये उन्होंने यहाँ की सभ्यता और संस्कृति से ताल मेल करके यहाँ की कला और उद्यम को प्रोत्साहित किया.क़ुतुब मीनार ,ताजमहल आदि स्थापत्य कला में उत्कृष्ट स्थान रखने वाले भवन मुग़ल काल में ही निर्मित अथवा उस समय में संशोधित हुए जिस रूप में आज हैं.मुग़ल काल में  ही ढाका की मलमल को विश्वव्यापी प्रसिध्धि मिली .परन्तु अंग्रेज जो आये ही व्यापर के माध्यम से हमारे देश की भौतिक सम्पदा को लूटने  थे.अपने शासन काल में एक के बाद एक हमारी हस्त कला को समाप्त करते गए और इस प्रकार हमारे देश का सांस्कृतिक उत्पीडन भी किया .
   स्वंय अँगरेज़ कलेक्टर आर्थोर किंग ने विल्लियम बेंटिक को लिखते हुए आर्कट जिले की तबाही का मार्मिक वर्णन किया है ,उसने लिखा था.'विश्व के आर्थिक इतिहास में ऐसी गरीबी मुश्किल से दूंढ़े मिलेगी .भारत के मैदान बुनकरों की हड्डियों से सफ़ेद हो रहे हैं'.
  यही कारण था कि महात्मा गाँधी ने राजनीतिक के साथ -२ आर्थिक आज़ादी को भी जोड़ा और स्वदेशी का नारा दिया .मर्यादा पुरोषत्तम श्री राम केवल अयोध्या के राजा नहीं थे वह कोटि -२ भारतियों के जन -नायक थे उन्होंने तत्कालीन साम्राज्यवादियों - लंका के रावण ,अमेरिका (पाताल -लोक )के ऐरावन और साईं बेरिया के कुम्भकरण के विस्तारवाद से संघर्ष किया था .राम -रावण युद्ध सीता -अपहरण के कारण नहीं हुआ ,बल्कि सीता का अपहरण करके साम्राज्यवाद ने भारतीय राष्ट्रवाद को ललकारा था .यह राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद का संघर्ष था .महात्मा गाँधी को भी साम्राज्यवाद  से ही टकराना पड़ा अतः उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम को अपना आदर्श माना  और स्वाधीन भारत में रामराज्य की कल्पना की .
  अब ज़रा भाजपा का राम -राज्य भी देखें .गत वर्ष जय श्री राम का उद्घोष कर सम्पूर्ण राष्ट्र को साम्प्रदायिकता की वीभत्स आग में झोंक दिया गया .सोमनाथ से वोट -रथ यात्रा निकाल कर  . साम्प्रदायिकता साम्राज्यवाद की सहोदरी है जिस कारण महात्माजी ने साम्प्रदायिकता  का  डट कर  विरोध किया था जिसका मूल्य उन्हें अपनी प्राणाहुति देकर चुकाना पड़ा .
  ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत में अपने हितों की रक्षार्थ कर्नल टाड ,विन्सेंट स्मिथ ,लेनपूल ,मिसेज़ बेब्रीज़ आदि इतिहासकारों के माध्यम से साम्प्रदायिक -वैमनस्य उत्तपन कराया हमारे अपने सर्व श्री आर .सी .माज़ुम्दार और पी .एन .ऑक साम्राज्यवादियों के स्वर में बोलने लग  गए .श्री मति एस .एस .बेब्रीज़ ने बाबरनामा तुजुक्बाब्री के अंग्रेजी अनुवाद में अयोध्या के राम लला मंदिर को गिरा कर बाबरी मस्जिद बनवाने की कहानी गढ़ दी और यही कहानी साम्प्रदायिक ज़हर ढ़ा रही है जिसका शिकार भाजपा है .अर्थात साम्राज्य- वादिओं द्वारा फंसाई गयी राजनीतिक पार्टी साम्राज्यवाद -विरोधी और राष्ट्रवाद  के पुरोधा मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के राज्य का शतांश भी नहीं ला सकती .
   श्री राम ने विखंडित भारत को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में पिरोया ,जन -जातियों ,आदिवासियों को गले लगाया . शबरी ,सुग्रीव ,हनुमान आदि इसका ज्वलंत उदाहरण हैं .तथा कथित उच्च सवर्णवाद की बू से त्रस्त और साम्राज्यवादी साज़िश की शिकार भाजपा सरकार कभी रामराज्य ला ही नहीं सकती .
 यदि वास्तव में हमें भारत भू पर राम राज्य लाना है तो वसुधैव कुटुम्बकम को पुनः अपनाना होगा .जब सम्पूर्ण विश्व ही परिवार है तो देशवासी सभी भाई -२ हैं और साम्प्रदायिक वैमनस्य नहीं चल सकता .क्या भाजपा ऐसा कर सकेगी .इसका प्रश्न ही उत्पन्न  नहीं होता .

(आप यदि गौर से उस समय लिखे और छपे उपरोक्त लेख को पढेंगे तो स्पष्ट हो जायेगा कि मेरा आंकलन कितना सही निकला .वह भाजपा सरकार साम्प्रदायिक विग्रह करा कर समाप्त हो गयी थी .आज फिर से वह विवाद हमारे सामने है .लगातार कई पोस्ट्स में मै सच्चाई दोहराता आ रहा हूँ ,लोग पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होने के कारण ध्यान नहीं दे रहे हैं.एक विद्वान् खूब विश्लेषण करते हैं लेकिन मैंने उनसे मार्गदर्शन माँगा तो अंतर्ध्यान हो गए ,अब आप ही निर्णय करें .)


Typing Co -ordination-Yashwant

Saturday, October 9, 2010

"असली अयोध्या और द्वारिका पुरी" (जी.विश्वनाथ जी से एक निवेदन)

आदरणीय जी.विश्वनाथ जी,
सादर नमस्ते

आपकी विभिन्न ब्लॉग्स पर तो टिप्पणियाँ पढ़ प्रभावित था ही परन्तु आपने मेरे पुत्र के ब्लौग पर उसके लिए जो टिप्पणियाँ की हैं उनसे काफी ज्ञानार्जन हुआ है,आप की लगभग सभी बातें सही हैं और उन से सहमत हूँ.बल्कि आपने देखा होगा कि असहमति वाले विषयों पर मैं वहां प्रतिवाद करने कि बजाय अपने ब्लौग पर बगैर उसका हवाला दिए ही लिखता हूँ.एक वरिष्ठ पत्रकार  महोदय से राष्ट्रीयता पर सहमत नहीं था,हल्का सा ज़िक्र करने पर उन्होंने विदेशी पुस्तकों का हवाला दिया तो मैंने "धन्यवाद" पर वहां बात समाप्त करके यहाँ "ब्रह्मवर्चसी......."में बात को स्पष्ट किया.इसी प्रकार गांधी जी वाले पोस्ट में प्रयोग किया.मैं समझता हूँ आपकी बातों को अन्य लोगों को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए.आप इंजिनीयर होने के नाते बनाने की,निर्माण करने की बातें करते हैं जो पूर्णतः उचित हैं.अभी अयोध्या विवाद गर्म है -मैंने भी एक पोस्ट दिया है; परन्तु यहाँ वेदों के मतानुसार अयोध्या का मंतव्य स्पष्ट कर रहा हूँ और चाहूँगा कि आप यदि कोई त्रुटी हो तो उस पर प्रकाश डालें जिससे कि मैं संशोधन और परिवर्धन कर सकूँ.हांलांकि ये विचार मेरी खोज नहीं  हैं विद्वान् प्रो.द्वारा की हुई व्याख्या है.

अथर्ववेद के अध्याय १० के खंड ३ के श्लोक संख्या ३१ में कहा गया है:-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवपूरयोध्या 
प्रो.साहब (डा.सोम देव शास्त्री ) ने इस मन्त्र का विश्लेषण इस प्रकार किया है--
यह शरीर देवताओं  की ऎसी नगरी है कि उसमे दो आँखें, दो कान, दो नासिका द्वार एक मुंह तथा दो द्वार मल एवं  मूत्र विसर्ज्नार्थ हैं.ये कुल नौ द्वार अथार्त दरवाजे हैं जिस अयोध्या नगर में रहता हुआ जीवात्मा अथार्त पुरुष कर्म करता और उनका फल भोगता है.द्वारों के सन्दर्भ में ही इस शरीर को द्वारिकापुरी भी कहा जाता है.

मुझे लगता है कि अगर हम अयोध्या की यह व्याख्या मानें और प्रचारित करें तो जो झगडा अयोध्या में मचा हुआ है उससे बचा जा सकता है.जो आपा  धापी और मार काट अयोध्या के नाम पर हो रही है बगैर यह सोचे कि इसका कुफल क्या होगा और कौन भोगेगा.राम तथा कृष्ण  तो वेदों के अनुकूल आचरण करते थे और राष्ट्र हित में अपना सर्वस्व न्योछावर करने से भी नहीं चूके थे.आज उन्हीं राम के नाम पर अयोध्या में तथा कृष्ण के नाम पर मथुरा में बावेला मचाया जा रहा है.यह केवल अज्ञानता के कारण नहीं है बल्कि आर्थिक शोषण को मज़बूत करने हेतु राजनैतिक कवच धारण करने की कुचेष्टा है.

हम जो कर्म करते हैं और इस जीवन में उनका सुफल व कुफल भोगने से बच जाता है वही अवशेष अगले जन्म हेतु प्रारब्ध (भाग्य)बन जाता है जिसे अपने कर्मों द्वारा हम अनुकूल या प्रतिकूल बना सकते हैं.किसी जातक के जन्म समय के आधार पर ज्योतिष में गणितीय गणना करके ग्रह नक्षत्रों के फल के आधार पर उसका भविष्य बताते हैं.सही समय का लाभ उठाना चाहिए और खराब समय को वैज्ञानिक उपाय अपना कर सही में बदलना चाहिए.यही ज्योतिष का अभीष्ट है.लेकिन कुछ ढोंगी व पाखंडी जनता को उलटे उस्तरे से मूढ़ कर इस विज्ञान का दुरूपयोग करते हैं वह सर्वथा गलत और निंदनीय है.आज कल नवरात्र चल रहे हैं और लोक में प्रचलित गलत मान्यताओं पर ये भी पाखण्ड से ग्रस्त हैं जबकि श्री श्री रविशंकर के अनुसार :-महिषासुर (अथार्त जड़ता) शुम्भ-निशुम्भ (गर्व और शर्म) और मधु-कैटभ (अत्यधिक राग द्वेष) को नष्ट करने का सन्देश है.मनो ग्रंथियों (रक्त बीजासुर),बेमतलब का वितर्क (चंड-मुंड) और धुंधली दृष्टि (धूम्रलोचन) को केवल प्राण और जीवन शक्ति ऊर्जा के स्तर को ऊपर उठाकर ही दूर किया जा सकता है.डा.सुरेश चन्द्र मिश्र के अनुसार :-"ओं दुं दुर्गाये नमः" का अर्थ है -द=दैत्य नाश,उं=विध्न नाश,र=रोग नाश,ग=पाप नाश,आ=भय,और शत्रु नाश का तात्पर्य है.

दैत्य = तन मन में छुपे तौर पर रहने वाले शोक,रोग,भव -बंधन,भी,आशंका आदि मनोविकार,शरीर के सामान्य क्रिया कलापों को प्रभावित करने वाले विकार या कीटाणु (Bactarias) जाने अनजाने होने वाले पाप सब तरह के गुप्त प्रकट शत्रु ही दैत्य हैं.

विद्वानों की बातें जनता नहीं सुन रही है जबकि लोभी,ढोंगी मूर्ख बना रहे हैं.

 कृपया मार्गदर्शन करें कि सही बातें जनता में कैसे लोकप्रिय बनायी जाएँ.
आप के परिवार में सबों की मंगल कामना करता हूँ उन्हें नमस्ते.

भवदीय
विजय माथुर


Typist -यशवंत

Monday, October 4, 2010

खेल और मजदूरों को ठेल

कल से कामन वेल्थ खेल शुरू हो गए .जैसा कि  गोरखपुर की अपराजिता अग्रवाल ने सवाल उठाया है विचारणीय है .लेकिन खेल सूत्रों का कहना है -दिल्ली में हो रहा यह आयोजन न सिर्फ खेलों के लिए फायेदेमंद साबित होगा बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी इसका सकारात्मक असर पड़ेगा :- जीडीपी में ४९४ करोड़  डालर  का ,२४ लाख ७० हज़ार लोगों को रोज़गार मिलेगा .
अब जबकि दिल्ली से मजदूरों को हटाया जा रहा है -मतलब निकल गया अब पहचानते नहीं की तर्ज़ पर तो साफ़ है की यह रोज़गार और जी डी पी का लाभ मजदूर या आम जनता को नहीं मिलने जा रहा है .निश्चिय ही यह लाभ उन्ही लोगों को मिलेगा जो आयोजकों के नजदीक होंगे .बिलकुल यही प्रक्रिया पूरे विकास की कहानी है .
इन खेलों के बहाने फिर सोचने का मौका मिला है की जनोन्मुखी विकास की बातें कैसे पूरी की जाएँ ?

Sunday, October 3, 2010

मानवता की सेवा --- पूनम माथुर

लेखिका-श्रीमती पूनम माथुर
इंसान भगवान को ढूँढता है.परन्तु असल में भगवान कहाँ छुपा हुआ है,किसी को पता नहीं है.परन्तु भगवान तो प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर समाया हुआ है.प्रसिद्ध साहित्यकार राजा राधिका रमण की कहानी -''दरिद्र नारायण'' में राजा भगवान की खोज करता है.ताज उसके सिर पर बोझ या भार हो चला है.मंदिर,जंगलों,कहाँ-कहाँ नहीं उसने भगवान को ढूँढा पर भगवान उसे प्राप्त नहीं होते हैं.महर्षि के आश्रम में जब वह जाता है,भगवान की खोज करता है तो उसे महर्षि के आसन पर एक काला कलूटा कंकाल वही भिखारी बैठा दिखाई देता है जिसे उसके सिपाहियों ने पीटा था यह कह कर कि राजा की सवारी निकल रही है और तुमने अपशकुन कर दिया.

जब राजा ने उसे वहां बैठा हुआ देखा तो राजा के दिमाग में यह बात आई कि सच्ची प्रार्थना ,सच्ची पूजा,सच्ची सेवा तो मानवता की करनी चाहिए.सेवा दीन-हीन व्यक्तियों की करनी चाहिए.तभी नर में नारायण के दर्शन होंगे.अगर अपने अन्दर मानव की सेवा  करने की भावना है तो आप परमात्मा के सच्चे सेवक हैं.वही परमात्मा की सेवा है.प्राणिमात्र से प्यार करो,घृणा के भाव को ख़त्म करो ,ईर्ष्या द्वेष को मिटा दो.  

इस शरीर रूपी मंदिर में परमात्मा स्वंय आ जायेगा.कबीर जी कहते हैं स्वयं को पहचानो,अपनी जांच स्वयं करो तब और जब आप स्वयं ऐसा करने में सफल हो जायेंगे तो स्वतः ही आप अपने उद्धारक बन जायेंगे.अगर संसार का प्रत्येक प्राणी इन विचारों से ओत प्रोत हो जाए तो फिर संसार स्वर्ग की तरह हो जायेगा.संसार सुधरने लगेगा और सुन्दर लगेगा.विकार ख़त्म होने लगेंगे.

वैसे सुखद  संसार के लिए धन नहीं,अच्छा व्यक्ति चाहिए.अगर मानव विकास चाहता है तो अपने अन्दर मानवता को जगाए.अगर हम सफल जीवन की कामना करते हैं तो प्रेम और सौहार्द्र ,भाईचारे की भावना को अपने अन्दर लाना होगा.एक बार फिर अपने में सच्ची श्रद्धा की भावना लानी होगी.आत्म विश्वास को पुनः जगाना होगा.तभी हम सारी समस्याओं का सामना कर उन्हें सुलझा पाएँगे.आज हमें इसी श्रद्धा की भावना की आवश्यकता है.मनुष्य में तो इसी श्रद्धा की भावना का अंतर है कि कोई अपने से बड़ा और कोई अपने से छोटा समझता है.

हमारे पूर्वजों ने अपने आत्मविश्वासी प्रेरणा शक्ति के आधार पर हमारी सभ्यता को इतनी ऊंची सीढ़ियों पर चढ़ाया था परन्तु अब इसका पतन हो गया है,अवनति हो गयी है.अवनति तभी से शुरू हुई जब से हमने श्रद्धा और आत्मविश्वास को खोना शुरू कर दिया.हम अपने अंदर आत्मविश्वास को जगाएं और फिर मानवता को उसी जगह से ले चलें जहाँ हमारे पूर्वजों ने ला कर खड़ा किया था.किसी ने कहा है कि मानव की पूजा कौन करे? मानवता पूजी जाती है.हम सबसे पहले तो मानव बनने की कोशिश करें.अगर हम सच्चे अर्थों में मानव बन गए तो हमने मानवता की सेवा कर ली.संसार के प्राणिमात्र से प्यार करना प्रभु के विराट रूप का दर्शन करना है.जैसे जितने पदार्थ हैं सब उसी परमेश्वर के प्रतिरूप हैं.सभी शरीर उसी के हैं पशुओं व पक्षियों की भी सेवा करनी चाहिए.

जैसे सूर्य अच्छे बुरे सभी व्यक्तियों को या प्राणिमात्र को सामान रूपसे प्रकाश प्रदान करता है.गंगा का जल दुष्ट और संत सभी के लिए सामान रूप से है,समस्त प्राणिमात्र के लिए है.वृक्ष रखवाले और पेड़ काटने वाले सभी को सामान रूप से फल प्रदान करता है,उसी तरह से आप अपनी सम-दृष्टि का विकास करें.नाम और रूप भले ही अलग-अलग हैं पर उसमे जो तत्व हैं वह समान और एक ही हैं.ये सारे नाम और रूप ,संसार और वस्तु उसी पर अवलंबित हैं उसी का प्रतिबिम्ब है.

हम सभी को परमात्मा ने एक समान आधार पर जोड़ा है,इसी एकता की स्थापना पर विश्वमात्र निर्भर है.सब से प्रेम एक रूप हो कर करो.सब के सुख-दुःख साथ-साथ बांटो.चारों ओर प्रसन्नता की किरणें फूट पड़ेंगी,तभी मानवता की सच्ची सेवा होगी. राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जी के अनुसार-

अनर्थ है कि बन्धु ही न बन्धु की व्यथा हरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे
यही पशु प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे
वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे

(विशेष- यह लेख २००४ ई.में आगरा की एक त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है.आज भी इस लेख की उपयोगिता बढ़ गयी है जब पूजा -स्थल को ले कर एक बार फिर इंसान -इंसान के बीच नफरत पैदा करने की कोशिश कुछ लोग कर रहे हैं.अतः इसे यहाँ पुनः प्रकाशित किया जा रहा है.)

Typist -यशवंत