Tuesday, January 8, 2013

सोने की चिड़ियाँ कहाँ उड़ गईं?---विजय राजबली माथुर




इस लेख के माध्यम से कुछ पोंगा-पंथी ,शोषक-उत्पीड़क ब्लागर्स की अवैज्ञानिक और धूर्ततापूर्ण टिप्पणियों को आधार बना कर भारत क़े उज्जवल भविष्य हेतु कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा है .

 सबसे पहली बात
एक  ब्लागर सा: ने एक  आचार्यजी का उल्लेख करते हुये 'हवन' की आलोचना की  है  लेकिन उन आचार्य जी की उपलब्धि भारत में पाखण्ड और ढोंग की पुनर्स्थापना करना ही है .१८५७ की क्रान्ति में सक्रिय भाग लेने क़े १७ -१८ वर्ष बाद महर्षि दयानंद सरस्वती ने १८७५ ई .में आर्य समाज की स्थापना कर पाखण्ड -खंड्नी पताका फहरा दी थी .लोग जागरूक होने लगे थे और दस वर्ष बाद स्थापित इंडियन नेशनल कांग्रेस क़े इतिहास क़े लेखक डा .पट्टाभीसीतारमैय्या ने लिखा है कि आज़ादी क़े आन्दोलन में भाग लेने वाले कांग्रेसियों में ९० प्रतिशत आर्य समाजी थे .उक्त आचार्यजी ने आर्य समाज की रीढ़ तोड़ दी ,उन्होंने गायत्री मन्त्र को मूर्ती में बदल डाला ;उनके अनुयाइयों  ने वेदों की भी मूर्तियाँ बना डालीं .उन आचार्यजी और उनकी श्रीमतीजी की समाधि पर क़े चढ़ावे को लेकर उनके पुत्र और दामाद में घमासान चल रहा है .उनका संगठन प्रारंभिक हवन समिधाएँ ४ रखता है -धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष  हेतु .जबकि परमात्मा ,आत्मा और प्रकृति क़े निमित्त तीन ही खडी समिधाएँ लगाई जाती हैं और तीन ही समिधाओं की प्रारम्भिक आहुतियाँ दी जाती हैं .जब आप नियमानुसार हवन कर ही नहीं रहे तब परिणाम क़े अनुकूल होने की अपेक्षा  क्यों ?


                         दूसरी बात यह है

योगीराज श्री कृष्ण ने गीता में १६ वें अध्याय क़े १७ वें श्लोक में कहा है -

"आत्मसम्भावितः स्तब्धा धन मान मदान्वितः .
यजन्ते नाम यज्ञेस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम."

अर्थात अपनी स्तुति आप करने वाले ,अकड्बाज़ ,हठी, दुराग्रही ,धन तथा मान क़े मद में मस्त होकर ये पाखण्ड क़े लिए शास्त्र की विधि को छोड़ कर अपने नाम क़े लिए यज्ञ (हवन )किया करते हैं .
स्वभाविक है कि जो हवन अवैज्ञानिक होंगे उनका कोई प्रभाव नहीं हो सकता .अतः आवश्यकता है सही वैज्ञानिक विधि से हवन करने की न कि व्यर्थ भटक कर हवन को कोसने की या मखौल उड़ाने की .

तीसरी बात फिर विदेशियों से


"परोपकारी" पत्रिका क़े अनुसार भोपाल क़े उपनगर (१५ कि .मी .दूर )बेरागढ़ क़े समीप माधव आश्रम में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक मिसेज पेट्रिसिया हेमिल्टन ने बताया कि "होम -चिकित्सा " अमेरिका ,चिली ,और पोलैंड में प्रासंगिक हो रही है .राजधानी वाशिंगटन में "अग्निहोत्र -विश्वविद्यालय "की स्थापना हो चुकी है .
बाल्टीमोर में ४ सित .१९७८ से अखंड अग्निहोत्र चल रहा है .जर्मनी की एक कंपनी ने अग्निहोत्र की भस्म से सिर -दर्द ,जुकाम ,दस्त ,पेट की बीमारियाँ ,पुराने ज़ख्म व आँखों की बीमारियाँ दूर करने की दवाईंया बनाना प्रारम्भ कर दिया है .

चौथी बात यह 

इस ब्लाग में पिछली कई पोस्ट्स क़े माध्यम से वैज्ञानिक हवन पद्धति पर विस्तार से लिख चुका हूँ अतः यहाँ अब और दोहराव नहीं किया जा रहा है .मुख्य प्रश्न यह है कि हमारा देश जब पहले समृद्ध था -सोने की चिड़िया कहलाता था तो फिर क्या हुआ कि आज हम I .M .F  और World Bank क़े कर्जदार हो गए हैं .विकास -दर की ऊंची -ऊंची बातें करने क़े बावजूद अभी यह दावा नहीं किया जा सकता कि हमने अपने पुराने गौरव को पुनः हासिल कर लिया है.
        पांचवीं बात वास्तु की

हमारा भारतवर्ष वास्तु शास्त्र क़े नियमों क़े विपरीत प्राकृतिक संरचना वाला देश है .वास्तु क़े अनुसार पश्चिम और दक्षिण ऊंचा एवं भारी होना चाहिए तथा पूर्व व उत्तर हल्का व नीचा होना चाहिए .हमारे देश क़े उत्तर से पूर्व तक हिमालय पर्वत है तथा दक्षिण एवं पश्चिम में गहरा समुद्र है .लेकिन प्राकृतिक प्रतिकूल परिस्थितियों क़े बावजूद आदि -काल से हमारे यहाँ वैदिक (वैज्ञानिक )पद्धति से हवन होते थे .न तो लोग हवन का मखौल उड़ाते थे न ही ढोंग -पाखण्ड चलता था;जैसा कि आज हवन क़े साथ हो रहा है और यह सब वे कर रहे हैं जो कि स्वयंभू ठेकेदार हैं भारतीय -संस्कृति क़े और जो दूसरों को भारतीय -संस्कृति का पाठ पढ़ा रहे हैं .

प्रत्येक शुभ कार्य से पहले सर्वप्रथम वास्तु -हवन होता था (१५ संस्कारों में ) सिर्फ अंतिम संस्कार को छोड़ कर ;उसके बाद फिर सामान्य -होम होता था .संस्कार विधि में महर्षि  स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी वास्तु- हवन का विस्तृत वर्णन किया है .लेकिन महाभारत -काल क़े बाद जब वैदिक -संस्कृति का पतन हुआ तब हवन पद्धति को विस्मृत किया जाने लगा उसी का यह नतीजा रहा कि हम हज़ार साल से ज्यादा गुलाम रहे और आज 65  वर्ष की आज़ादी क़े बाद भी हमारे बुद्धिजीवी तक गुलामी क़े प्रतीकों से चिपके रहने में खुद को गौरान्वित महसूस करते हैं .यही कारण है कि भारत की भाग्य लक्ष्मी रूठी है और तब तक रूठी ही रहेगी जब तक कि हम भारतवासी पुनः  अपने वैदिक -विज्ञान को अंगीकार नहीं कर लेते .
 
लेकिन एक और दुखद पहलू है कि महर्षि द्वारा स्थापित संगठन "आर्य -समाज " में आज रियुमर स्पिच्युटेड सोसाईटी की घुसपैठ हो गई है और वह इस संगठन को अन्दर से खोखला कर रही है ताकि ढोंग और पाखण्ड का निष्कंटक राज कायम रह सके और इस कार्य मे कारपोरेट चेनल्स आग मे घी का कार्य कर रहे हैं। IBN7 के कारिंदा और पूना प्रवासी भ्रष्ट-धृष्ट ब्लागर के सहयोगी द्वारा 'हवन' का अनर्गल विरोध इस प्रकार किया गया है-

आज हम चारों ओर अति वृष्टि,अनावृष्टि,अति शीत,प्रचंड ग्रीष्म आदि के प्रकोप से पीड़ित होते मानवता को देख रहे हैं। इन सबका मूल कारण अपनी प्राचीन 'हवन पद्धती' को भुला देना ही है। भारतीय संस्कृति जाति,धर्म,नस्ल आदि का विभेद किए बगैर सम्पूर्ण विश्व की मानवता ही नहीं समस्त प्राणी-जगत के कल्याण की कामना करती है। 

एक आर्यसमाजी विद्वान ने 'मानव' की निम्नलिखित पहचान बताई है।----- 

  "त्याग-तपस्या से पवित्र-परिपुष्ट हुआ जिसका 'तन'है,
भद्र भावना -भरा स्नेह-संयुक्त शुद्ध जिसका 'मन' है। 
होता व्यय नित-प्रति पर-हित मे, जिसका शुचि संचित 'धन'है,
वही श्रेष्ठ -सच्चा 'मानव'है,धन्य उसी का 'जीवन' है।"

यदि हम पुनः इन मूल्यों को स्थापित कर सकें तो पाएंगे कि हमारा देश आज भी 'सोने की चिड़िया' हो जाएगा।


इस पोस्ट को यहाँ भी पढ़ा जा सकता है।

1 comment:

dinesh gupta said...

भाव-पूर्ण |
सादर बधाई ||