Saturday, May 10, 2014

संसदीय लोकतन्त्र बचाना है तो 'कारपोरेट कम्यूनिज़्म' से बचना होगा ---विजय राजबली माथुर

वर्ष 2014 में हो रहे 16 वीं संसद के चुनावों की सबसे मत्वपूर्ण और यादगार बात रहेगी-'कारपोरेट कम्यूनिज़्म' का अभ्युदय । मजदूरों की कमर तोड़ने व कम्युनिस्ट आंदोलन को बाधित करने हेतु पहले 'कारपोरेट ट्रेड यूनियनिज़्म' को खड़ा किया गया जिसके अंतर्गत मेनेजमेंट के नुमाइंदे ट्रेड यूनियन में घुस कर अंदर से मजदूरों की एकता तोड़ देते थे फिर मेनेजमेंट समर्थक यूनियनें बनने लगीं,उसके बाद जातिगत आधार पर अर्थात श्रमिक एकता छिन्न-भिन्न हो गई।
2011 मे कारपोरेट भ्रष्टाचार के संरक्षण तथा मजदूरों के शोषण को और तीव्र करने हेतु हज़ारे/केजरीवाल आंदोलन खड़ा किया गया जिसका परिणाम AAP/आ आ पा है जिसे JNU के प्रोफेसर एवं छात्र नग्न समर्थन दे रहे हैं और खुद को कम्युनिस्ट वामपंथी भी कह रहे हैं। आ आ पा की टीम संघी मानसिकता के लोगों का जमावड़ा है और उसे कम्युनिस्ट-वामपंथी 'बनारस' में कदमताल करते हुये समर्थन प्रदान कर रहे हैं। इनकी कोशिश बनारस के मुस्लिमों को मूर्ख बना कर केजरीवाल को वोट दिलवाना है जिससे मोदी की जीत सुगम हो जाये। CPM की केरल यूनिट में भाजपाइयों को शामिल करने के बाद अब प्रकाश करात साहब ने आ आ पा /केजरीवाल को अपने मोर्चे में शामिल करने का संकेत भी दे दिया है। यह है-'कारपोरेट कम्यूनिज़्म' का ज्वलंत उदाहरण।
यदि दिल्ली की सड़कों पर कभी कम्युनिस्टों का संघ से संघर्ष होगा तब इन क्रांतिकारी कम्युनिस्टों को संघियों के साथ-साथ कार्पोरेटी कम्युनिस्टों से भी संघर्ष करना होगा। चुनावों से दूर भागने के कारण 'संसदीय साम्यवाद' तब विफल होगा और कमांड सशस्त्र क्रांतिकारी कम्युनिस्टों के हाथों में होगी जिनमें उतावले और अपरिपक्व लोग भी शामिल होंगे। ऐसी क्रांति को आज ही के दिन 10 मई 1857 के दिन प्रारम्भ हुई क्रांति की भांति कुचल देना शासकों के लिए बहुत आसान होगा। अतः 'संसदीय साम्यवाद' के समर्थकों को नितांत जागरूकता के साथ सजग रहना होगा।

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उपरोक्त स्टेटस फेसबुक पर देने का आशय यह था कि समय रहते वस्तु-स्थिति से सबको परिचित करा दिया जाये। एक तरफ तो 'संसदीय साम्यवाद' को तेलंगाना संघर्ष के बाद ही अपना लिया गया है जिसके परिणाम स्वरूप 1952 के प्रथम चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी मुख्य विपक्षी दल बन कर उभरी थी। किन्तु दूसरी ओर आज संसद और विधानसभाओं/स्थानीय निकायों के चुनावों आदि में भागीदारी न करने के कारण संसदीय संस्थानों में कम्युनिस्टों की उपस्थिती नगण्य है। अतः क्रांतिकारी कम्युनिस्ट जो संख्या में चाहे जितने भी हों परस्पर संघर्ष रत रहते हुये सशस्त्र क्रान्ति के स्वप्न देखते रहते हैं।  

सशस्त्र क्रांति वाले अपनी इस प्रकार की हरकतों के कारण सही उद्देश्य के बावजूद जनता का समर्थन नहीं हासिल कर सकते हैं। वहीं संसदीय लोकतन्त्र वाले संसदीय चुनावों से दूर रहने के कारण और अपने 'एथीस्ट वाद 'के चलते जनता में लोकप्रियता हासिल करने से वंचित रहते हैं। एथीस्ट्वादी 'धर्म' का विरोध करते हैं क्योंकि उनकी निगाह और ज्ञान के अनुसार पोंगापंडितवाद,ढोंग,पाखंड,आडंबर ही धर्म है। 
'धर्म'=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
इन सद्गुणों का महर्षि कार्ल मार्क्स ने किस पुस्तक में विरोध किया है?मार्क्स ने उस समय यूरोप में प्रचलित रोमन केथोलिक और प्रोटेस्टेंट रिलीजन्स का विरोध इसलिए किया है कि वे धर्म नहीं ढोंग-पाखंड-आडंबर हैं। उसी  प्रकार हिन्दुत्व,इस्लाम आदि रिलीजन्स  का भी विरोध किया जाना चाहिए किन्तु  'धर्म' का विरोध करने का औचित्य क्या है?धर्म वह है जो मनुष्य और मानव समाज को धारण करने हेतु आवश्यक है उसका विरोध करके कैसे मार्क्स वाद लागू किया जा सकता है?और यही वजह है इसके रूस में उखड़ने तथा चीन में 'विकृत' हो जाने की। 
धर्म का विरोध करते हुये तथा  खुद को नास्तिक-एथीस्ट घोषित करते हुये कम्युनिस्ट विद्वान व नेता गण ढोंग -पाखंड -आडंबर को गले लगाए रहते हैं तथा पोंगापंडितवाद का संरक्षण करते हैं। चाहे क्रांतिकारी हों अथवा संसदीय लोकतन्त्र के समर्थक कभी भी मार्कसवाद को सफल नहीं बना पाएंगे यदि 'धर्म' -वास्तविक पर नहीं चलेंगे तो। 

क्रान्ति=क्रान्ति कोई ऐसी वस्तु नहीं होती जिसका विस्फोट एकाएक या अचानक होता है। बल्कि इसके अनंतर 'अन्तर'के तनाव को बल मिलता रहता है।
जैसे कि ब्रिटिश दासता में उत्पीड़ित होते-होते अंततः 22 जून 1857 को उनकी सत्ता को उखाड़ने का निश्चय करके तैयारी चल ही रही थी कि मंगल पांडे के बैरकपुर छावनी में विद्रोह करने व बलिदान  देने से भड़के सैनिकों ने 10 मई को मेरठ छावनी से बगावत का बिगुल बजा दिया।'अपरिपक्वता' एवं उतावलेपन के कारण अधूरी तैयारी पर हुई क्रान्ति पारस्परिक फूट के चलते विफल हो गई। 

यही भय आज भी विद्यमान है कि सशस्त्र क्रान्ति के पक्षधर कम्युनिस्ट कहीं अधीरता व अपरिपक्वता के कारण असमय क्रान्ति का बिगुल बजा कर असफलता का वरन न कर लें। कम से कम नक्सलियों की कारगुजारियाँ तो ऐसे ही संकेत देती हैं। 
अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि संसदीय लोकतन्त्र के समर्थक व सशस्त्र क्रांति के समर्थक कम्युनिस्ट आपस में मिल कर रण-नीति व मोर्चा बनाएँ तथा वास्तविक धर्म को पहले खुद समझ कर फिर जनता को बेधड़क समझाएँ कि जिसे शोषकों-उतपीडकों द्वारा धर्म की संज्ञा दी जा रही है वह धर्म नहीं बल्कि ढोंग-पाखंड-आडंबर मात्र है। किन्तु क्या 'क्रान्ति' की बातें करने वाले कम्युनिस्ट समाज और जनता को वास्तविकता समझा पाएंगे जबकि वे खुद ही उलझे हुये हैं? तभी तो नया कारपोरेट कम्यूनिज़्म पनप रहा है।   


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