Saturday, June 7, 2014

घर-घर हो क्रांति तब सुधरेगा समाज ---विजय राजबली माथुर






बलात्कार जैसी हिंसा को औरत के वस्तुकरण से जोड़कर देखने की जरूरत है. यह औरत के खिलाफ अमानवीय हिंसाचार है जिसका संबंध हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के एकतरफा पुंसवादी पितृसत्ताक रवैये से है. इसे कला-संस्कृति के उन रूपों में भी खोजा जाना चाहिए जो केवल बाजारू धंधे की कैंसर जकड़ का शिकार हैं. अपनी (सीमित) जानकारी के आधार पर बता सकती हूँ कि भोजपुरी सिनेमा गंभीर रूप से औरतों के प्रति असंवेदनशील नजरिया रखता है. ऐसा नहीं है कि अन्य भाषाओं की फिल्मों में यह दिक्कत नहीं है लेकिन भोजपुरी में ताबड़तोड़ ऐसी ही फिल्मों और घटिया गानों का अम्बार लगाया जा रहा है. जो लोग यह कहते नहीं थकते कि सिनेमा का असर लोगों पर ज्यादा नहीं होता, वे पूरी तरह गलत हैं. ये फिल्में साफ्ट पोर्न का तीव्र गति से उत्पादन करती हैं जिनके कारण औरत औरत न दिख कर देह या मात्र अंग-विशेष नजर आती है. उनकी भूमिका नहीं वरन् शरीर हमें आकर्षित करता है. आगे चल कर यह वस्तुवादी नजरिया और भी अधिक विकृत होने लगता है. साफ्ट पोर्न की नियमित खुराक लेनेवालों को लगता है कि औरत पीड़ा, दुख और हिंसा में ही आनंद लेती है. कोई भी वस्तु यह नहीं कहती कि उसे तोड़ दो या नष्ट कर दो लेकिन औरत चाहती है कि उसे उत्पीड़ित किया जाए, तकलीफ दिया जाए. इसके एवज में वह आनंद में आपको सराबोर कर देगी. इसी कुंठित मानसिकता के कारण औरत हमेशा अमानवीय दरिंदगी का शिकार होती है. यह राजनीतिक या कानूनी मसला न होकर हमारी रुग्ण मानसिकता और बीमार रवैये की समस्या है.
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दोनों विदुषी महिलाओं ने यह स्वीकार किया है कि वर्तमान में चर्चित समस्या 'बलात्कार' राजनीतिक,कानूनी या सरकारी स्तर पर सुलझने वाली समस्या नहीं है।दोनों विद्वानों में  एक ने प्रत्यक्ष और दूसरी ने अप्रत्यक्ष रूप से सुझाया है कि इसके लिए परिवार के स्तर पर घरेलू पहल भी होना चाहिए। वस्तुतः इसी में समाधान अंतर्निहित है। 

मेरे विचार से लगभग 11 सौ वर्षों की गुलामी के दौरान हमारे देश के इतिहास और संस्कृति को विदेशी शासकों के हित में जिस प्रकार तोड़-मरोड़ दिया गया है उसे खुल कर ठुकरा देने की महती आवश्यकता है। कुरान की तर्ज़ पर चले पुराणों ने भारत के महापुरुषों का चरित्र हनन किया है और इसे अंजाम दिया है ढ़ोंगी-पाखंडी-आडंबरधारी पोंगापंथी ब्राह्मणों ने। आज भी ये पोंगापंथी ब्राह्मण व्यापारियों,उद्योगपतियों,कारपोरेट घरानों की प्रेरणा पर शोषित-उत्पीड़ित जनता को गुमराह करने हेतु पुराणों का खेल खेलते रहते हैं। उनके  इस अधर्म को तथाकथित प्रगतिशील और विज्ञानवादी 'एथीस्ट'लोग धर्म की संज्ञा देकर और अधिक पुष्ट कर देते हैं जिस कारण जनता के पास गुमराह होने व भटकने के सिवा कोई दूसरा विकल्प बचता ही नहीं है।  इन वैज्ञानिक प्रगतिशील एथीस्टवादियों में इतना भी नैतिक साहस नहीं है कि ये जनता को स्पष्ट समझा सकें कि जिसे धर्म बताया जाता है वह वास्तव में 'अधर्म' है । वस्तुतः 'धर्म' वह है जो मानव शरीर व मानव समाज को 'धारण करने हेतु आवश्यक है। ' 
'धर्म'=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। 
पोंगापंथी तो अपने निजी स्वार्थ में यह वास्तविकता नहीं बताते हैं परंतु प्रगतिशील,वैज्ञानिक एथीस्ट वादी भी धर्म का विरोध कर जनता को इन सद्गुणों से दूर रहने को कहते हैं। फिर जमाखोरी,टैक्स चोरी,हिंसा,उत्पीड़न,बलात्कार का बाज़ार नहीं गरम होगा तो क्या होगा?
'परिवार नागरिकता की प्रथम पाठशाला होते हैं।'अतः पारिवारिक स्तर से अपने सदस्यों को वास्तविक 'धर्म' की शिक्षा दी जानी चाहिए और 'अधर्म'अर्थात पौराणिक ढोंग-पाखंड-आडंबर से बचने व दूर रहने की प्रेरणा दी जानी चाहिए। यदि 'भागवत पुराण' के नाम पर योगीराज श्री कृष्ण को चरित्र-भ्रष्ट बना कर अपनी मामी राधा के साथ रास लीला करते दिखाया व गुण गाँन  किया जाता रहेगा तो समाज से बलात्कार की समस्या को कैसे दूर किया जा सकता है?यदि प्रक्षेपक द्वारा यह दिखाया व बताया जाता रहेगा कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने विवाहित होते हुये भी स्वर्ण नखा (जिसे सूर्पनखा का संबोद्धन पौराणिकों ने दिया है )को लक्ष्मण के पास और लक्ष्मण ने राम के पास विवाह हेतु भेजा अर्थात उसे व्यर्थ परेशान किया तो समाज में किस मर्यादा की कल्पना की जा सकती है?
यदि एकमात्र युद्धीष्ठिर की पत्नी 'द्रौपदी' को पांचों पांडवों की पत्नी के रूप में चित्रित करते हुये 'चीर हरण' की गाथा गाई जाती रहेगी तो किस प्रकार महिला सम्मान की कल्पना की जा सकती है?
विदेशी शासकों का तो हित इसी में था कि यहाँ के महापुरुषों का चारित्रिक पतन प्रचारित किया जाये जिससे उनका अनुसरण करते हुये  भारतीय समाज पतित हो जाये और अपना विवेक खो बैठे जिससे उस पर सुगमता से शासन किया जा सके। और यही हुआ खटमल और जोंक की तरह दूसरों का खून चूसने वाली जाति के लोगों ने चंद चांदी के सिक्कों की खातिर विदेशी शासकों के हितों में महान चरित्रों का हनन करके 'पुराणों' के रूप में जनता के दिल-दिमाग में  ठूंस दिया जो आज भी बदस्तूर जारी है । 
उससे पहले समय-समय पर बुद्ध,महावीर आदि ने इन कुप्रथाओं का विरोध किया था  और जनता को जागरूक किया था  तो उन पर उनके जीवन काल में  इन पोंगापंथियों ने प्रहार किए  और उनके बाद उनको चमत्कारी अवतारी घोषित करके जनता को उनसे दूर कर दिया गया तभी तो विदेशी आक्रांताओं के आगमन पर उनका मुक़ाबला करने की बजाए देशवासियों ने पारस्परिक फूट के चलते उनका स्वागत ही किया। 
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आधुनिक युग में जब कुरीतियों पर प्रहार किया तब वाराणासी के ब्राह्मणों ने उन पर पथराव करवाया जिस प्रकार तुलसी दास की रामचरित मानस जला कर उनको वहाँ से हटा दिया था तब मस्जिद में शरण लेकर बच बचाकर तुलसी दास को अयोध्या आना पड़ा था। लेकिन दयानन्द ने इन ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में परास्त कर दिया था। दयानन्द के विरोध में ब्रिटिश सरकार ने राधा स्वामी मत को खड़ा करवाया जिसका व्यापक प्रचार व प्रसार ब्रिटिश सरकार में प्रथम भारतीय पोस्ट मास्टर जेनरल के ओहदे पर रहे पूर्व सरकारी अधिकारी ने किया। 'सत्यार्थ प्रकाश' के खंडन हेतु 'यथार्थ प्रकाश' को लाया गया। दूसरी ओर ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा हेतु गठित RSS की घुसपैठ 'आर्यसमाज' में करवाई गई जिसके प्रभाव से आज आर्यसमाज भी RSS का पिछलग्गू बन कर दयानन्द के आदर्शों के विपरीत कार्यों में संलग्न हो गया रही सही कसर श्री राम शर्मा ने आर्यसमाज तोड़ कर गायत्री परिवार बना कर पूरी कर दी जिसने ढोंग-पाखंड-आडंबर को पुनः महिमामंडित कर दिया। 
प्रश्न यह है कि साधारण जनता को घर-घर जाकर कौन जाग्रत करेगा?व्यापार जगत के हितैषी पोंगापंथी तो कर ही नहीं सकते उनका तो कार्य ही जनता को गुमराह करके उल्टे उस्तरे से मूंढना है । 
प्रगतिशील,वैज्ञानिक साम्यवादी/वामपंथी तो 'एथीस्ट वादी' हैं उनका कार्य तो धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का विरोध करना व पोंगापंथियों के ढोंग-पाखंड-आडंबर को धर्म के रूप में प्रचारित करना है और ऊपर से तुर्रा यह कि महर्षि कार्ल मार्क्स और शहीद भगत सिंह का ऐसा निर्देश है!वे यह नहीं बताते कि मार्क्स अथवा भगत सिंह ने लोक प्रचलित अधर्म-रिलीजन्स का विरोध किया था । ओल्ड टेस्टामेंट्स तथा प्रोटेस्टेंट्स के संघर्ष देखते हुये उन रिलीजन्स का मार्क्स ने विरोध किया है और भगत सिंह ने भी हिन्दू-इस्लाम मजहबों के संघर्ष देखते हुये उन मजहबों का विरोध किया है। न तो भगत सिंह ने न ही कार्ल मार्क्स ने धर्म=सत्य,अहिंसा (मनसा-वाचा-कर्मणा),अस्तेय,अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का विरोध किया है जबकि एथीस्ट वादी वही कर रहे हैं जो उनके आदर्श महापुरुषों  द्वारा कहा  ही नहीं गया है। 
समाज और राष्ट्र में व्याप्त हर बुराई को दूर करने हेतु तथा व्यवस्था परिवर्तन हेतु जब तक साम्यवादी/वामपंथी शक्तियाँ जनता को वास्तविक धर्म का मर्म समझा कर अधर्म (ढोंग-पाखंड-आडंबर) से दूर रहने हेतु जाग्रत करने का अभियान अपने हाथ में नहीं ले लेतीं तब तक समाज से चोरी,डकैती,बलात्कार,लूट-मार,ठगी जैसे कुरीतियों को समाप्त नहीं किया जा सकता है। क्रांति के इच्छुक और तत्पर लोगों को पहले अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना होगा और फिर जनता को घर-घर जाकर क्रांति धर्म समझाना होगा तब जाकर समाज में सुधार की कोई गुंजाईश बनेगी वर्ना तो पोंगापंथी लुटेरे अपनी लामबंदी ढीली करने से रहे।


  ~विजय राजबली माथुर ©
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1 comment:

Shalini kaushik said...

सार्थक व् सुन्दर अभिव्यक्ति .बधाई